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________________ 34 पुण्य-पाप तत्त्व 3-4 की राजवार्तिक टीका में यह कहकर किया है कि पुण्य-पाप का संबंध अनुभाग से है। स्थिति बंध से नहीं है। शुभ अनुभाग की वृद्धि कषाय में कमी होने से होती है। पुण्य का आस्रव शुद्धोपयोग से और पाप का आम्रव अशुद्धोपयोग से होता है, यही कसायपाहुड की जयधवला टीका पुस्तक 1 में स्पष्ट कहा है यथा पुण्णासवभूदा अणकंपा सुद्धओ य उपजोओ। विवरीओ पावस्स हु, आसवहेउं वियाणाहि । । अर्थात् अनुकम्पा और शुद्ध • उपयोग पुण्यास्रव स्वरूप है या पुण्यास्रव के कारण हैं तथा इनसे विपरीत अर्थात् निर्दयता और अशुद्ध उपयोग ये पापास्रव के कारण हैं। इस प्रकार आम्रव के हेतु कहे गये हैं। -कसायपाहुड, जयधवला टीका, पुस्तक 1, पृष्ठ 96 तात्पर्य यह है कि पाप-पुण्य का आधार संक्लेश-तथा पुण्य का आधार विशुद्धि है। विशुद्धि से पुण्य का उपार्जन (आस्रव) होता है पुण्य बढ़ता है इसलिए विशुद्धि रूप शुद्धोपयोग को पुण्य का आस्रव कहा गया है तथा संक्लेश से पाप का अर्जन (आस्रव) होता है पाप बढ़ता है, इसलिए संक्लेश रूप अशुद्धोपयोग को पाप का हेतु कहा है। जैसा कि कहा है " को संकिलेसो णाम ? कोहमाणमायालोहपरिणाम विसेसो । को विसोही णाम? जेसु जीवपरिणामेसु समुप्पण्णेसु कसायाणं हानि होदि । " अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ के परिणामों में वृद्धि होना संक्लेश है और जीव के जिन परिणामों से कषायों की हानि (कमी) होती है, उसे विशुद्धि कहते हैं। कषाय में कमी होने से आत्मा की विशुद्धि तथा शुद्धि बढ़ती है। अत: इसे विशुद्धि व शुद्धोपयोग कहा जाता है और कषाय में वृद्धि होने से आत्मा में संक्लेश व अशुद्धि बढ़ती है। अत: इसे संक्लेश व अशुद्धोपयोग कहा है। -जय धवला, पुस्तक 4 पृष्ठ 15 एवं 41
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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