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________________ ----- 15 पाप तत्त्व : स्वरूप और भेद ------ निंदा करना, पर-दोष दर्शन करना, पर को हीन दृष्टि से देखना आदि इसके अनेक रूप हैं। (16) रति-अरति-अनुकूलता के प्रति रुचि ‘रति' तथा प्रतिकूलता के प्रति अरुचि ‘अरति' है। अनुकूलता में प्रसन्न होना, प्रतिकूलता में खिन्न होना, अनुकूलता को बनाये रखने की रुचि, प्रतिकूलता को दूर करने की इच्छा आदि इसके अनेक रूप हैं। (17) माया-मृषावाद-कपट सहित झूठ बोलना अर्थात् भीतर में कुटिलता रखकर ऊपर से मधुर बोलना। चालाकी से बात करना, धोखा भरी वाणी बोलना, कूटनीति भरी बातें करना आदि माया मृषा के अनेक रूप हैं। सत्य को जानते हुए असत्य आचरण करना भी माया मृषावाद है। (18) मिथ्यादर्शन शल्य-मिथ्यात्व युक्त प्रवृत्ति मिथ्यादर्शन शल्य है। देह में आत्म बुद्धि होना, धन-संपत्ति आदि की पराधीनता में स्वाधीनता मानना, आदि मिथ्यादर्शन शल्य के अनेक रूप हैं। स्वभाव को विभाव और विभाव को स्वभाव मानना भी मिथ्यादर्शन है। उपर्युक्त अठारह पापों का विवेचन स्थूल दृष्टि से संक्षिप्त रूप में किया गया है। वह प्रवृत्ति जो आत्मा से विमुख करती है, बहिर्मुखी बनाती है, पर की ओर अभिमुख करती है, सब पाप है। उपर्युक्त सभी पाप बुरे हैं, यह ज्ञान स्वयं सिद्ध है। क्योंकि कोई भी मानव बुरा नहीं कहलाना चाहता है, यह भी सर्व विदित है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि फिर हम ये बुरे काम करते क्यों है ? कहना होगा कि हम अपने विषय-सुख की पूर्ति के लिए इन सब पापों को करते हैं। इन पापों के फलस्वरूप दु:ख मिलेगा तो फिर देखा जायेगा, उसे भोग लेंगे, अभी तो सुख भोग लें। इस प्रकार हम क्षणिक विषय सुख की दासता में इतने आबद्ध हैं कि अपने ज्ञान का अनादर कर विषय-सुख सामग्री की
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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