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________________ XXXVIII पुण्य-पाप तत्त्व है, क्योंकि जो कर्म राग-द्वेष-ममत्व से ऊपर उठकर मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से किया जाता है ऐसा निष्काम कर्म धर्म का ही अंग है। बिना फल की आकांक्षा के कर्त्तव्य बुद्धि से कर्म करने पर विभाव में परिणति नहीं होती है, क्योंकि विभाव दशा तभी संभव होती है जब 'पर' में 'स्व' का अर्थात् ममत्व बुद्धि का आरोपण होता है। ममत्व बुद्धि या रागात्मकता से अथवा फलाकांक्षा से किया गया कार्य ही बंधन का कारण होता है और इसलिए उसकी गणना अशुभ कर्म या पाप कर्म में होती है, किंतु ममत्व बुद्धि से ऊपर उठकर मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से जो कर्म किया जाता है वह कर्म अकर्म बन जाता है और निष्काम कर्म या अकर्म धर्म ही होता है अत: पुण्य धर्म है। वस्तुत: शुभ कर्म या पुण्य कर्म करते समय यदि व्यक्ति ममत्व बुद्धि या रागात्मकता को रखकर चलता है तो वह पुण्य को पाप में ही परिवर्तित कर देता है। उसे पापानुबंधी पुण्य कहा है वही बंधन रूप है। न केवल जैन परम्परा में अपितु गीता में भी कर्त्तव्य बुद्धि से किये गये कर्म बंधन के कारण नहीं माने गये हैं, अपितु उन्हें धर्म या मुक्ति का हेतु ही कहा गया है। कर्म में रागात्मकता या फलबुद्धि आने पर कर्त्तव्य बुद्धि समाप्त हो जाती है और कर्त्तव्य बुद्धि समाप्त हो जाने पर वह कर्म विकर्म या पाप कर्म बन जाता है। अत: पुण्य आस्रव का निमित्त होते हुए भी धर्म ही है, क्योंकि उसमें कर्त्तव्य बुद्धि ही होती है। अत: पुण्य को धर्म की कोटि में ही स्थान देना होगा। __पुण्य धर्म नहीं है अथवा धर्म पुण्य नहीं है या पुण्य और धर्म भिन्नभिन्न हैं-जो लोग ऐसी अवधारणा रखते हैं, वे वस्तुत: पुण्य का अर्थ ममत्व बुद्धि रागात्मकता से युक्त कर्म ही लेते हैं। किंतु सभी शुभ कर्म (कार्य) या पुण्य कर्म रागात्मकता से ही सम्पन्न होते हैं, यह नहीं माना जा सकता है। अनेक शुभ कर्म या पुण्य कर्म मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से सम्पन्न होते हैं और जो कर्म मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से सम्पन्न होते हैं वे धर्म ही कहे जायेंगे, क्योंकि
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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