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________________ भूमिका XXXIII कारण उसे आस्रव रूप मानना है। यह ठीक है कि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में शुभ का आस्रव कहा है, किंतु प्रथम तो ध्यान रखना आवश्यक है कि शुभ का आस्रव हेय नहीं है। उमास्वाति ने भी कहीं भी शुभ को हेय नहीं कहा है। जो भी आस्रव है, वह सभी हेय या अनुपादेय है ऐसा अनेकांतवादी जैन दर्शन का सिद्धांत नहीं है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो आस्रव के हेतु हैं वे परिस्रव अर्थात् संवर और निर्जरा के हेतु भी बन जाते हैं और जो परिस्रव अर्थात् संवर और निर्जरा के हेतु हैं वे आस्रव के हेतु भी बन सकते हैं। अत: पुण्य कर्म आस्रव रूप ही है-ऐसी जैनदर्शन की एकांत अवधारणा नहीं है। प्रस्तुत कृति में पं. प्रवर श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा कसायपाहुड की जयधवला टीका के आधार पर लिखते हैं कि दया, दान, करुणा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य आदि सद्प्रवृत्तियों को शुभयोग व पुण्य कहा गया है। साथ ही शुभयोग को संवर भी कहा गया है। जयधवला में कहा गया है कि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाये तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता है। वस्तुत: उनकी यह अवधारणा युक्तिसंगत है कि शुभभाव कषाय के उदय से नहीं, कषाय की मंदता से होते हैं अत: वे संवर रूप भी हैं। यह निश्चय सिद्धांत है कि शुभ परिणामों के उदय से अशुभ परिणामों का संवर होता है और अशुभ परिणामों का संवर ही वास्तविक अर्थ में संवर है। पुण्य में प्रवृत्ति होने से पाप से निवृत्ति स्वाभाविक रूप से होती है। अत: पुण्य को आस्रव रूप और संवर रूप दोनों ही मानना होगा। पुण्य चाहे शुभ का आस्रव हो, किंतु उसी समय वह अशुभ का तो संवर है ही। पुण्य कर्म और उसका बंध एवं विपाक ___ यह सत्य है कि पुण्य कर्म भी है। क्योंकि उसका आस्रव, बंध और विपाक माना गया है, किंतु सभी प्रकार के आस्रव और बंध समान नहीं होते हैं। वस्तुत: वही आस्रव, बंध एवं विपाक हेय कहा जाता है जिसके
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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