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________________ 230--- --- पुण्य-पाप तत्त्व सज्जनता, विनयता, मृदुता, उदारता, मुदिता आदि सद्गुणों का, साधुत्व का, निवास है, उसके चित्त में समता, शांति, प्रसन्नता, प्रीति का परमानंद लहराता रहता है। उसे किसी की भी आवश्यकता नहीं होती है। वही संपत्तिशाली है। कहा भी है-“एकांत सुखी साधु-वीतरागी।” साधु व वीतरागी के समस्त सम्राट् व सेठ सिर नमाते हैं। साधु सम्राट् से अधिक सुखी, सम्पन्न व पुण्यवान होता है जबकि साधुओं के पास बाह्य वस्तुएँ भूमि, भवन आदि सम्राटों व सेठों की तुलना में कुछ भी नहीं होती हैं। समस्त कामनाओं से मुक्त अंत:करण की पूर्ण संतोष अवस्था से ही शांति व आनन्द की अनुभूति होती है, यही सुख है-वास्तविक सम्पत्ति है। कामना पूर्ति से प्रारंभ होने वाला सुख मिथ्या भ्रमात्मक व क्षणिक होता है। इसके पश्चात् सुख प्राप्ति के लिए उसी कामना पूर्ति की जाति की अन्य अनेक कामनाओं का जन्म होता है। उन कामनाओं की जितनी पूर्ति होती है, उनसे मिलने वाला सुख उतनी ही अधिक कामनाओं को जन्म देता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक वह शारीरिक व मानसिक रूप से थककर निराश नहीं हो जाता है। कामना में ही समस्त दारुण सुख अंतर्निहित है। निष्काम होना ही समता के साम्राज्य में प्रवेश करना है। यही वास्तविक सम्पन्नता है। सम्पन्नता ___यह नियम है कि विषयों की कामना पूर्ति से सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है अथवा यों कहें कि दु:ख उसी को भोगना पड़ता है जो विषय-सुख का भोगी है, कामी है। अत: दु:ख से छूटने का एकमात्र यही उपाय है कि हम विषय-सुख की कामना का त्याग करें, परंतु यहीं यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि हम इस सुख का त्याग कर दें तो फिर हमारा जीवित रहने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है अर्थात् हमारा
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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