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________________ सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम -. ---------219 __ अर्थ-सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत हों फिर भी विषय सुखों में लुब्ध मनुष्यों की कुछ भी तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं।।48।। समग्र भूमि, समग्र चावल, जौ और अन्य अन्न, समस्त पशु, समस्त स्वर्ण व अन्य धन, एक व्यक्ति की इच्छा परिपूर्ण करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यह जानकर तपश्चरण करे।।49।। ____ अत: इच्छा पूर्ति से सुख चाहने वाला व्यक्ति इच्छा की अपूर्ति व अतृप्ति के दु:ख की आग में निरंतर जलता रहता है अर्थात् इच्छा पूर्ति के सुख के भोगी को दु:ख से मुक्ति मिलना कदापि संभव नहीं है। जैसे कि कहा है सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे य पत्थेमाणा, अकामा जति दोग्गइं।। अहे वयंति कोहेणं, माणेणं अहमा गई। मायागई पडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं।। ____ -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 9, गाथा 53-54 अर्थ-काम-भोग शल्य हैं, शूल के समान प्रतिक्षण चुभने का दु:ख देते रहते हैं। काम-भोग विष व आशीविष के समान हैं। विषय-भोगों की तरंगें आशी-विष के समान तत्काल मूर्च्छित करने वाली-अपना भान भुलाने वाली हैं। काम-भोग का इच्छुक व्यक्ति कामना अपूर्ति के दु:ख से भयंकर दुर्गति को प्राप्त होता है।।53।। काम-भोगों से कषायों की उत्पत्ति होती है। कषाय से प्रगति अवरुद्ध होती है क्रोध से अधोगति होती है। मान से अधम गति होती है, माया से सुगति की ओर प्रगति में प्रतिघात होता है और लोभ से दोनों प्रकार का भय होता है अर्थात् प्राप्त सुख व सामग्री के जाने का भय और अनचाहे दु:ख आने का भय सदा बना रहता है।।54।।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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