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________________ 214--- --- पुण्य-पाप तत्त्व ___ अंतराय कर्म के पाँच भेद हैं -दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय व वीर्यान्तराय। __ 1. दानांतराय-वात्सल्य, करुणा, दया, सेवा, अनुकंपा से प्रेरित विश्व-हित में रत होना दान है। दान देने की भावना न जगना अपितु विषय सुखों के लिए दूसरों से दान पाने की कामना उत्पन्न होना दानांतराय है। (संयम पालनार्थ दाता की प्रसन्नता हेतु भिक्षा लेना दानांतराय नहीं है।) उदारता की उदात्त भावना दानांतराय का क्षयोपशम है। उदारता का परिपूर्ण हो जाना अर्थात् शरीर, बुद्धि, ज्ञान, बल, योग्यता आदि सब शक्तियों को जगत् हितार्थ समर्पित कर देना, अपने सुखभोग के लिए कुछ भी बचाकर न रखना अनन्त दान है, दानान्तराय कर्म का क्षय है। 2. लाभान्तराय-भोग्य वस्तुओं की कामना उत्पन्न होना लाभान्तराय है। वस्तुओं की कामनाएँ अर्थात् तृष्णा प्राणी को पराधीनता में आबद्ध करती है, अपनी स्वाभाविक स्वाधीनता का अपहरण करती है, शांति को भंग करती है, प्राणी को चैन से नहीं रहने देती है, अभाव का अनुभव कराती है। अभाव का अनुभव होना ही दरिद्रता है, लाभान्तराय है। 3-4. भोगान्तराय व उपभोगान्तराय-इन्द्रियों के विषय में सुख का आस्वादन करना भोग है। एक ही प्रकार के भोग को व उसकी जाति के भोगों को बार-बार भोगना उपभोग है। भोग की कामना की पूर्ति न होना भोगान्तराय है और उपभोग की कामना की पूर्ति न होना उपभोगान्तराय है। भोग व उपभोग की कामनाओं की उत्पत्ति का कारण भोग्य पदार्थों का सुंदर, स्थायी व सुखद प्रतीत होना है। इससे भोग्य पदार्थों के प्रति राग उत्पन्न होता है। राग व कामना का उत्पन्न होना, बहिर्मुखी होना है, आत्मा के स्वभाव से च्युत होना, अपने स्वाभाविक सुख से वंचित
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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