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________________ 212--------------- ---- पुण्य-पाप तत्त्व अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ।।36।। ण तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहइ मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो।।48।। - उत्तराध्ययन, अध्ययन 20 आत्मा स्वयं अपने दु:खों एवं सुखों का कर्ता तथा अकर्ता है। सद्प्रवृत्ति में रत आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में रत आत्मा ही अपना शत्रु है। इस प्रकार दुष्प्रवृत्ति में रत आत्मा वैतरणी नदी और कूटशाल्मलि वृक्ष के समान दु:खदायी है तथा सद्प्रवृत्ति में रत आत्मा कामधेनु और नंदनवन के समान सुखदायी है। दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनर्थ करता है उतना अनर्थ कंठ को छेदन करने वाला शत्रु भी नहीं करता है। दया, अनुकंपा, करुणा आदि सद्प्रवृत्तियों से रहित यह आत्मा मृत्यु के मुख में पहुँचने पर पश्चात्ताप करता हुआ इस तथ्य को जानेगा। इन गाथाओं में सुख-दुःख का, संपन्नता-विपन्नता का कारण बाह्य-वस्तुओं की प्राप्ति-अप्राप्ति, परिस्थितियों की अनुकूलताप्रतिकूलता एवं घटनाओं को नहीं बताया है, अपितु आत्मा की सद्प्रवृत्तियों एवं सद्गुणों, विशुद्ध भावों को सुख-संपन्नता का कारण बताया है और दुष्प्रवृत्तियों, दुर्गुणों, संक्लेश भावों को अर्थात् पापाचरण को दु:ख, दीनता, दरिद्रता का कारण बताया है। प्राणातिपात, मृषावाद, मिथ्यादर्शन शल्य आदि अठारह पाप हैं। इनका आचरण पापाचरण है। इन पापों में मुख्य पाप क्रोध-मान-माया और लोभ कषाय हैं। पापाचारण से घाती कर्मों, पाप-प्रकृतियों का सर्जन व बंध होता है, जिससे क्षमा, अनुकम्पा, सरलता, मृदुता, अकिंचनता, दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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