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________________ 198 पुण्य-पाप तत्त्व अभिन्न अंग होने से अनुकम्पा, वात्सल्य भी स्वभाव ही हैं। स्वभाव होने से ये धर्म भी हैं तथा शुद्ध भाव भी हैं। इन्हें शुद्ध भाव से अलग नहीं किया जा सकता। इसलिये जो कार्य शुद्ध भाव से होता है, वही कार्य अनुकम्पा एवं वात्सल्य से भी होता है। करुणा भी अनुकम्पा का ही रूप है, इसलिये करुणा भी जीव का स्वभाव है। धवला की 13वीं पुस्तक पृष्ठ 361-362 पर श्री वीरसेनाचार्य ने 'करुणा जीवसहावो' कहा है। यदि अनुकम्पा, वात्सल्य को विभाव माना जाये तो सम्यग्दर्शन को भी विभाव मानने का प्रसंग उपस्थित होगा, जो किसी को इष्ट नहीं है। अनुकम्पा, वात्सल्य, करुणा रूप स्वभाव या शुद्ध भाव का क्रियात्मक रूप दयालुता, सेवा, परोपकार, सदाचार है। अत: इनसे भी वही कार्य होता है जो संयम, तप, त्याग, ध्यान, चारित्र, स्वाध्याय आदि साधनाओं व शुद्ध भावों से होता है। यह नियम है कि दुष्प्रवृत्तियों या पाप कर्तृत्व भाव के बिना नहीं होते। उनके साथ करने के राग रूप कर्तृत्व एवं फल की आशा रूप भोक्तृत्व भाव लगा ही रहता है, परंतु सद्प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक व सहज होती हैं । उनमें करने का भाव अपेक्षित नहीं है। कारण कि करने का भाव भोक्तृत्व भाव से उत्पन्न होता है अर्थात् किसी क्रिया के फल से सुख भोगने की आशा से कर्तृत्व भाव पैदा होता है। विषय-कषाय के सुख भोग का प्रभाव चैतन्य पर अंकित होना, स्थित होना ही कर्मबंध या स्थिति बंध है। अपने भोग के सुख के राग को गालने के लिए ही साधक सद्प्रवृत्ति रूप परोपकार करता है। उस प्रवृत्ति से जितना-जितना भोग का राग गलता जाता है वह प्रवृत्ति उतनी ही पवित्र होती जाती है। उसका अनुभाव, अनुभाग उतना
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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