SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 178 ---- ----- पुण्य-पाप तत्त्व 'सव्वपावप्पणासणो' एवं 'पढम हवइ मंगलं' कहा है। अर्थात् नमस्कार सब पापों का नाश करने वाला एवं मंगलकारी है। यह सर्वविदित ही है कि साधक जैसे-जैसे संयम तप रूप साधना से आत्मविशुद्धि में वृद्धि करता जाता है, वैसे-वैसे गुणस्थान-आरोहण करता जाता है। जिससे पाप कर्मों का क्षय व पुण्योपार्जन अधिकाधिक होता जाता है। तात्पर्य यह है कि आगम व कर्म सिद्धांतानुसार 1. शुद्ध व शुभ भाव से कर्म क्षय तथा 2. पुण्यास्रव ये दोनों कार्य युगपत् होते हैं। इनमें विरोध नहीं है। जैसे सूर्योदय से अंधकार का क्षय और प्रकाश दोनों कार्य एक साथ होते हैं। अत: श्री वीरसेनाचार्य के ये दोनों कथन कि शुद्ध भाव से कर्मक्षय होते हैं और पुण्यास्रव होता है, समीचीन है। युक्तियुक्त व पूर्ण रूप से कर्मसिद्धांत सम्मत है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। ये दोनों कार्य जैसे शुद्ध भाव से होते हैं वैसे ही शुभभाव व शुभयोग से भी होते हैं कारण कि शुभयोग शुद्ध भाव का अनुसरण करता है तथा यह शुद्ध भाव का क्रियात्मक रूप है। आगे इसी पर आगम के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 29 के 10 सूत्र में आया कि प्रश्न-वंदणेणं भंते! जीवे किं जणयइ? वंदना करने से जीव को क्या प्राप्त होता है? उत्तर-वंदणेणं नीयागोयं कम्मं खवेइ उच्चागोयं कम्मं निबंधइ। अर्थात् वंदना करने से जीव नीच गोत्र का क्षय करता है और उच्च गोत्र का निबंधन करता है अर्थात् वंदना से पाप कर्म का क्षय व पुण्यास्रव दोनों कार्य होते हैं। वंदना का ही दूसरा रूप नमस्कार है। नमस्कार को ठाणांग सूत्र के नवम ठाणे में पुण्य कहा है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य आदि पाँच पदों के नमस्कार रूप सर्वमान्य नवकार मंत्र के माहात्म्य में उसे सब
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy