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________________ ------173 पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग ----- पावागमदाराइं अणारू वट्ठियाइं जीवम्मि। तत्थ सुहासवदारं उग्घादेते कउ सदोसो।। -57, कसायपाहुड, जयधवला पुस्तक 1, पृष्ठ 96-97 अर्थात् जीव में पाप के आस्रव के द्वार अनादिकाल से स्थित हैं। उनके रहते हुए जो शुभ आस्रव के द्वार रूप पुण्यास्रव का उद्घाटन करता है वह सदोष कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। अर्थात् शुभास्रवपुण्यास्रव दोष रहित है। कहा भी है सातावेदनीय..'एदासिं पसत्थ-पयडीणं विसोधीदो अनुभागस्स घादाभावा समयं पडिविसोही वड्डिदो अणंतगुणकम्मण एदासिमणुभागबंधस्स वड्डिदसणादो च। -धवला पुस्तक 6, पृष्ठ 209 अर्थात् सातावेदनीय आदि समस्त प्रशस्त पुण्यरूप प्रकृतियों के अनुभाग का विशुद्धि से घात नहीं होता है, किन्तु प्रति समय विशुद्धि के बढ़ने से अनंतगुणित क्रम द्वारा इन उपर्युक्त पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग की वृद्धि देखी जाती है। अर्थात् विशुद्धि से पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में अनंतगुणी वृद्धि होती ही है। कर्मफल का संबंध अनुभाग से है, प्रदेश से नहीं। जैसाकि कहा है“अनुभागबंधो हि प्रधानभूत: तन्निमित्तत्वात् सुखदुःखविपाकस्य।" -राजवार्तिक 6.3 अर्थात् अनुभाग बंध ही प्रधान है, वही सुख-दु:ख रूप फल का निमित्त होता है। प्रकारांतर से कहें तो कर्म की फलदान शक्ति को ही अनुभाग कहा जाता है। ___ कर्मों के अनुभाग की न्यूनाधिकता कर्म के प्रदेश पर निर्भर नहीं है। कारण कि प्रदेशों के अधिक बढ़ने से 1. स्थिति व अनुभाग दोनों घट सकते हैं। 2. अनुभाग बढ़ सकता है, स्थिति घट सकती है। 3. स्थिति बढ़
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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