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________________ ------171 पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग ----- प्रतिक्रमण, निरतिचार व्रतपालन रूप शुद्ध संयम, वैयावृत्त्य रूप तप व त्याग भी है। इससे यह प्रमाणित होता है कि संयम, त्याग व तप रूप जिन साधनाओं से पाप कर्मों की स्थिति व अनुभाग का क्षय होता है, उन्हीं साधनाओं से पुण्य-प्रकृतियों व उनके प्रदेश व अनुभाग का उपार्जन रूप आस्रव भी होता है। अब पुण्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग के संबंध में विचार करें तो कर्मग्रन्थ भाग 5 गाथा 67 तथा पंचसंग्रह भाग 5 के अनुसार तीर्थङ्कर नामकर्म, यशकीर्ति, उच्चगोत्र आदि 32 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक श्रेणी में अपनी बंधव्युच्छित्ति होने के समय होता है। जैसे यशकीर्ति व उच्चगोत्र की बंधव्युच्छित्ति 10वें गुणस्थान के चरम समय में होती है, उस समय ही इन पुण्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग होता है। अर्थात् तीर्थङ्कर नामकर्म, उच्चगोत्र आदि 32 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वीतराग केवलज्ञानी होने वाले शुद्ध भाव के धारक क्षपक श्रेणी करने वाले शुद्ध उपयोग युक्त साधक के ही होता है, अन्य के नहीं और यह अनुभाग मुक्ति में जाने के पूर्व क्षण तक उत्कृष्ट ही रहता है। ____ तात्पर्य यह है कि तीर्थङ्कर नामकर्म, उच्चगोत्र आदि समस्त पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का उपार्जन शुद्ध भावों से ही होता है अशुद्ध भावों से नहीं। अत: पुण्यास्रव का कारण अशुद्धभाव मानना जैन सिद्धांत के विपरीत है। पूर्वोक्त 'पुण्णस्सासवभूदा' गाथा में स्पष्ट कहा है कि शुद्ध उपयोग से विपरीत अर्थात् अशुद्ध उपयोग में मात्र पाप का ही आस्रव होता है। यह नहीं कहा कि पाप और पुण्य इन दोनों का आस्रव होता है। अत: पुण्यास्रव के कारणों को अशुद्ध उपयोग मानना जैनागम के विरुद्ध है। पुण्यास्रव को कहीं भी दोष रूप नहीं माना है। जैसा कि भगवती सूत्र शतक 7 उद्देशक 6 में कहा है
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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