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________________ पुण्य-पाप के अनुबंध की चौकड़ी - 165 निरंतर होता रहता है। इसका निर्णय संक्लेश व विशुद्धि के आधार पर ही किया जा सकता है। कारण कि संक्लेश भाव कषाय की वृद्धि से होता है जिससे वर्तमान में बँधने वाली तथा भूतकाल में बँधी हुई सत्ता में स्थित व उदयमान समस्त पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग बंध में वृद्धि होती है। पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग क्षीण होता है तथा पूर्वबद्ध पुण्य-प्रकृतियों का पाप-प्रकृतियों में संक्रमण होता है। इस प्रकार संक्लेश भाव पुण्य का क्षय व पाप की वृद्धि करने वाला होने से पापानुबंधी होता है। इसी प्रकार विशुद्धि भाव कषाय में कमी होने व आत्मा के पवित्र होने का सूचक है। इससे वर्तमान में बँधने वाली तथा भूतकाल में बँधी हुई पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि होती है, पाप प्रकृतियों का अनुभाग क्षीण होता है तथा पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है। इस प्रकार विशुद्धि भाव पाप का क्षय व पुण्य की अभिवृद्धि करने वाला होने से पुण्यानुबंधी कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि पापानुबंधी और पुण्यानुबंधी का निर्णय संक्लेश व विशुद्धि भाव के आधार पर ही किया जा सकता है। इसी प्रकार उदय को लें। घाती कर्मों की कोई भी प्रकृति पुण्य रूप होती ही नहीं है तथा चारों ही घाती कर्मों का उदय 10वें गुणस्थान तक बंध 9वें गुणस्थान तक नियम से रहता है। यदि इनके उदय को पाप रूप में ग्रहण किया जाय तो केवली के अतिरिक्त शेष समस्त जीवों में सदैव पाप का ही उदय मानना होगा। जिससे पापानुबंधी पुण्य और पुण्यानुबंधी पुण्य इन दो प्रकारों के अभाव का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा। अत: यहाँ पर उदय में अघाती कर्म की अशुभ व शुभ प्रकृतियाँ ही अभीष्ट हैं और उनमें भी यदि तैजस-कार्मण शरीर, अगुरुलघु आदि पुण्य प्रकृतियों को ही उदय में ग्रहण किया जावे तो सभी जीवों के सदैव पुण्य का ही उदय मानना होगा। अतः पुण्य प्रकृतियों से धवला टीका में मुख्यतः साता वेदनीय के
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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