SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 ---- पुण्य-पाप तत्त्व होती जाती है। कैवल्य होने पर अनंत दान की उपलब्धि हो जाती है जो अनंत करुणा व दया की द्योतक है। वीतराग विश्व वत्सल होते हैं। दया, दान, करुणा, वात्सल्य आदि स्वाभाविक गुणों को दोष या विभाव मानना और इसके फलस्वरूप संसार परिभ्रमण मानना आगम विरुद्ध है। गुण या दोष, इन दोनों ही के दो-दो रूप होते हैं-1. भावात्मक और 2. क्रियात्मक। भावात्मक रूप का संबंध जीव के भाव के साथ होता है और क्रियात्मक रूप का संबंध बाह्य जगत् से होता है। इसलिये भावात्मक रूप का प्रभाव या फल सजीव के भाव या स्वभाव पर तत्काल व सीधा पड़ता है और क्रियात्मक रूप का फल बाह्य जगत् पर पड़ता है। दोष के भावात्मक रूप के फलस्वरूप घाती कर्मों का क्षय होता है। दोष या गुण के भावात्मक रूप का संबंध जीव के भावों के साथ होने से घाती कर्मों के बंध और क्षय में जीव सदैव समर्थ और स्वाधीन होता है। वह अपने राग, द्वेष, मोह आदि दोष रूप कषाय भाव का जिस क्षण चाहे उसी क्षण त्याग कर अपने घाती कर्मों को नष्ट कर सकता है और केवलज्ञान केवलदर्शन की उपलब्धि कर सकता है, कारण कि घाती कर्मों का संबंध जीव के विद्यमान दोषों से है। दोष के घटते, दूर होते ही घाती कर्म क्षीण या क्षय हो जाते हैं। अर्थात् दोष जितने-जितने अंश में घटते जाते हैं। घाती कर्म उतने ही उतने अंश में निर्जरित होते जाते हैं और गुण प्रकट होते जाते हैं। पाप मुक्ति में बाधक है, पुण्य नहीं मुक्ति-प्राप्ति का मार्ग बतलाते हुए आचार्य कहते हैं'सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' -तत्त्वार्थ सूत्र 1.1 अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से मुक्ति मिलती है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का बाधक कारण मिथ्यात्व मोहनीय है जो मोहनीय कर्म की
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy