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________________ -------149 पुण्य-पाप की बंध-व्युच्छित्ति : एक चिंतन रूप दोनों अवस्थाओं में होती है। परंतु देहांत मृत्यु है और देहातीत होना सिद्ध अवस्था है, निर्वाण है। तीर्थङ्कर नाम कर्म पुण्य प्रकृति का बंध प्रथम गुणस्थान में भी नहीं होता और 10 गुणस्थान में भी नहीं होता। परंतु 10वें गुणस्थान में तो कषाय के क्षय से तीर्थङ्कर नाम का अनुभाग पूर्ण (उत्कृष्ट) हो जाने से बंध नहीं होता है और प्रथम गुणस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय के उदय के कारण बंध नहीं होता है। एकेन्द्रिय जीव के भी स्थिति बंध अत्यल्प एक सागर से भी कम होता है और यही स्थिति बंध वीतराग अवस्था वाले क्षपक श्रेणी के साधक के भी होता है। बाहर से एक-सी अवस्था प्रकट होने पर भी अंतर में परस्पर विरोधी है। पाप प्रकृतियों की उत्पत्ति दोषों से और पुण्य प्रकृतियों की उत्पत्ति गुणों से होती है। दोषों के क्षय से पाप-प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति हो जाती है और गुणों की वृद्धि से पुण्य प्रकृतियों की पूर्णता हो जाने से पुण्य प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति हो जाती है। गुणों की वृद्धि और दोषों का क्षय ये दोनों कार्य युगपत् होते हैं अत: पुण्य और पाप प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति युगपत् होती है। इसी प्रकार क्षपक श्रेणी में पाप और पुण्य दोनों प्रकार की कर्म प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होने में दो विरोधी कारण हैं। क्षपक श्रेणी में घाती कर्म की पाप प्रकृतियों का अनुभाग बंध व स्थिति बंध घटता जाता है और घटकर उसका क्षय व अंत हो जाता है। इसलिये बंध व्युच्छित्ति हो जाती है। इसके विपरीत पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि हो जाती है और यह वृद्धि पूर्णता (उत्कृष्टता) को प्राप्त होकर रुक जाती है, कारण कि पूर्ण होने पर आगे बढ़ने की गुंजाइश ही नहीं रहती है। इसलिए पुण्य प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति होती है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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