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________________ अहिंसा, पुण्य और धर्म ----- ---------- 121 अहिंसा के दो रूप हैं-1. भावात्मक और 2. क्रियात्मक (द्रव्यात्मक) अर्थात् आभ्यंतरिक एवं बाह्य। अहिंसा का भावात्मक रूप स्व-पर सर्व हितकारी होता है, उसमें लेशमात्र भी किसी भी प्राणी के अहित की भावना, दुर्भावना नहीं होती है। भावात्मक रूप विषयासक्ति या राग घटाने वाला होता है। यह बात दूसरी है कि वीतराग के अतिरिक्त अन्य प्राणियों के भाव में सदैव विषय-कषाय, राग-द्वेष, मोह रहता ही है, अत: इनका उदय अपना प्रभाव दिखाता है। परंतु दया, रक्षा, अनुकंपा आदि अहिंसा के भाव में मैत्री भाव, भ्रातृत्वभाव (बंधुत्व) मातृत्व भाव (वात्सल्य) रूप हितकारी भाव (प्रेम) उमड़ने से उसके अंत:करण में विद्यमान उदयमान राग, द्वेष, मोह भाव (जड़ता) उसी प्रकार पिघलता है, द्रवित होता है, जैसे बर्फ पिघलकर जल व भाप बनती है। अत: दया, दान, आदि प्रवृत्तियाँ अहिंसक के लिए राग-द्वेष-मोह घटाने वाली होने से कल्याणकारी हैं। _आशय यह है कि दया, दान, आदि अहिंसात्मक सद्प्रवृत्तियाँ राग, द्वेष, मोह को घटाने वाली होने से आत्मा को विशुद्ध करने वाली, पवित्र करने वाली होती हैं। अत: त्याज्य नहीं हैं। त्याज्य हैं इनके साथ रहे हुये राग, द्वेष आदि भाव। जिनका त्यागना साधक के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। ये राग, द्वेष आदि दोष अप्रमत्त संयत जैसे उत्कृष्ट साधक के संवर, संयम व तप में भी होते हैं। इसीलिये उसके भी पाप का न्यूनाधिक रूप में सदैव बंध होता रहता है, परंतु इससे संयम या तप त्याज्य नहीं हो जाते हैं। इसी प्रकार अहिंसा भी त्याज्य नहीं है चाहे वह सकारात्मक हो या निषेधात्मक। यह तथ्य धर्म के अहिंसा, संयम और तप इन तीनों रूपों पर समान रूप से लागू होता है। अत: जैसे संयम और तप के साथ राग, द्वेष आदि दोष रहते हुये भी संयम और तप को बुरा या त्याज्य नहीं माना जा
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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