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________________ अहिंसा, पुण्य और धर्म ------ ------- 113 अत: दया, रक्षा आदि सद्प्रवृत्तियाँ व शुभ योग संवर या धर्म रूप ही हैं। पुण्य और संवर इन दोनों का आत्मा की पवित्रता के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। इनका यह संबंध देह के अंत होने तक अर्थात् सिद्ध होने के पूर्व क्षण तक रहता है। अत: कुछ लोगों की मान्यता कि-"जो पुण्य है, वह धर्म नहीं है", के पीछे आगम का कोई आधार हो, ऐसा नहीं लगता है। किसी भी आगम में व उसकी प्राचीन टीकाओं में यह नहीं कहा गया है कि पुण्य धर्म नहीं है। वस्तुत: जिस प्रकार संवर और निर्जरा आत्मा को पवित्र करने वाले तथा मोक्ष के साधन होने से धर्म हैं, इसी प्रकार आत्मा को पवित्र करने वाला पुण्य भी मोक्ष का साधन होने से धर्म है। संवर और निर्जरा तक की तरह पुण्य भी धर्म का ही अंग है, कारण कि शुभ योग पुण्य है और शुभयोग संवर भी है। शुभ योग प्रवृत्ति का भावात्मक रूप, अशुभ की निवृत्ति रूप संवर है और क्रियात्मक रूप पुण्य है। भावात्मक और क्रियात्मक रूप का प्रगाढ़ संबंध होने से मुक्ति मार्ग में अंत तक साथ रहने से दोनों ही धर्म हैं। जो आत्मा का पतन करता है, वह पाप है। पाप धर्म नहीं है, पाप अधर्म है। यदि आत्मा को पवित्र करने वाले पुण्य को अधर्म माना जाय तो आत्मा को पवित्र करने वाले संवर, तप को भी अधर्म मानना होगा। इसी प्रकार मुक्ति-प्राप्ति के समय पुण्य छूट जाने से पुण्य को अधर्म, हेय या त्याज्य माना जाय तो मुक्ति प्राप्ति के समय संवर, तप, यथाख्यात चारित्र आदि समस्त साधनाएँ छूट जाती हैं। अत: इन्हें भी अधर्म एवं हेय मानना होगा जो किसी को स्वीकार्य नहीं है। शुभ योग दया, दान आदि अहिंसा के क्रियात्मक रूप हैं, जो आत्मा को पवित्र करने वाले हैं। इसलिए शुभ योग को पुण्य कहा गया है। यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन सभी ग्रन्थों में 'पुण्य' को आत्मा को पवित्र करने
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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