SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104 पुण्य-पाप तत्त्व दो प्रकार का है-घातीकर्म और अघाती कर्म रूप । घाती कर्म के उदय में आंशिक कमी को क्षायोपशमिक भाव कहा जाता है। उदय रूप दोष के सर्वथा क्षय को क्षायिक भाव व उदय के पूर्ण उपशम को औपशमिक भाव कहा जाता है। औदयिक भाव आत्मा के निज स्वरूप या स्वभाव रूप धर्म की घात करने वाला होने से इसे अधर्म या पाप कहा जाता है। क्षायोपशमिक भाव से आत्मा के आंशिक गुण प्रकट होते हैं व क्षायिक व उपशम भाव से पूर्ण गुण प्रकट होते हैं। अतः ये तीनों भाव आत्मा के गुण स्वभाव को प्रकट करने वाले होने से धर्म हैं। परंतु इन तीनों भावों में से दोषों की कमी रूप क्षायोपशमिक भाव न्यूनाधिक रूप से सभी जीवों में पाया जाता है। अतः क्षायोपशमिक भाव सभी जीवों का सामान्य धर्म हुआ। इस सामान्य धर्म से पृथक् करने वाला अर्थात् असामान्य कोटि का, दोष को पूर्ण क्षय करने वाला क्षायिक भाव व दोष उपशम करने वाला औपशमिक भाव ये दोनों भाव अपनी विशेषता रखते हैं। इसी विशेष धर्म को, सामान्य धर्म से पृथक् करने वाला होने की दृष्टि से इन्हीं को धर्म माना है। परंतु इससे सामान्य धर्म का महत्त्व कम नहीं हो जाता है। जैसे हायर सैकेण्डरी शिक्षा से कॉलेज की शिक्षा अपनी विशेषता रखती है, इससे हायर सैकेण्डरी शिक्षा का महत्त्व खत्म नहीं हो जाता है। कारण कि हायर सैकेण्डरी शिक्षा के बिना कॉलेज की शिक्षा का ज्ञान संभव नहीं है। इसी प्रकार क्षायोपशमिक भाव की वृद्धि के बिना क्षायिक व औपशमिक भाव रूप धर्म संभव ही नहीं है। कारण कि क्षायोपशमिक भाव से आत्म-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, जिससे व्यक्ति में मुक्ति प्राप्त करने के लिए आवश्यक पुरुषार्थ करने का सामर्थ्य आता है तथा क्षायिक एवं औपशमिक उपलब्धि
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy