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________________ क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म ------ ------- 101 (दोष-पाप) है। इस दृष्टि से प्रत्येक प्राणी या सभी सांसारिक प्राणी धर्मात्मा भी हैं व पापात्मा भी हैं। फिर किसे धर्मात्मा कहें और किसे पापात्मा? ऐसी स्थिति में पापी व धर्मी में भेद ही नहीं किया जा सकेगा। सभी एक समान हो जायेंगे, जिससे पापी व धर्मात्मा की पहचान करना कठिन हो जायेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस आंशिक गुण-दोष रूप धर्म-अधर्म का विशेष महत्त्व नहीं है, क्योंकि प्रत्येक प्राणी के प्रतिक्षण उसके गुण दोष में, हानि-वृद्धि अर्थात् न्यूनाधिकता होती ही रहती है। दोष की न्यूनता अथवा आंशिक गुणों की अभिव्यक्ति को ही क्षयोपशम कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि के क्षमा, सरलता, नम्रता, करुणा आदि गुणों की उपलब्धि भी दोषों के क्षयोपशम से ही होती है। शुभ योग भी विशुद्धि भाव से अर्थात् क्षयोपशम भाव से ही होते हैं, किसी कर्म के उदय से नहीं होते हैं। अत: स्वभाव है, धर्म है, विभाव व अधर्म नहीं है। प्रज्ञाचक्षु पं. श्री सुखलालजी संघवी के तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 2 सूत्र 1-7 में टीका में स्पष्ट कहा है कि औदयिक भाव विभाव है और शेष चार भाव (क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि) स्वभाव है। पंडितजी ने इसी सूत्र के अध्ययन 5 सूत्र 6 की टीका में असंयमी के क्षमा आदि गुणों को सामान्य धर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि क्षमा, सरलता, दया, आदि गुण क्षायोपशमिक भाव मिथ्यादृष्टि के भी होते हैं और वे स्वभाव व धर्म हैं। परंतु ये सामान्य धर्म हैं और यह सामान्य धर्म सभी प्राणियों में न्यूनाधिक पाया जाता है। परंतु जब तक क्षायिक भाव से कर्मों का मूल से क्षय नहीं होता तब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। अत: जो महत्त्व कर्मों के क्षय होने का है वह क्षयोपशम का नहीं। कारण कि सामान्य धर्म में हानि वृद्धि होती ही रहती है और किसी न किसी अंश में तत्संबंधी दोष का उदय भी बना ही रहता है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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