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________________ 96 पुण्य-पाप तत्त्व भावना ही नीच गोत्र का हेतु है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपना मूल्यांकन वस्तु के आधार पर नहीं करता वह मद रहित निरभिमानी हो जाता है। उसमें उच्च-नीच भाव, छोटे-बड़े का भाव, गुरु- लघु, हीन - दीन भाव पैदा नहीं होता है, यही निरभिमानता एवं अगुरु-लघुत्व उच्च गोत्र के उपार्जन के हेतु हैं। तात्पर्य यह है कि मान कषाय के उदय से उत्पन्न मद से नीच गोत्र का उपार्जन एवं बंध होता है और मान कषाय के क्षय से विनम्रता, मृदुता से उच्च गोत्र का उपार्जन होता है। पूर्वोक्त विवेचन एवं आगमों के उद्धरणों से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि कषायों के क्षय से पुण्य का उपार्जन एवं कषायों के उदय से पाप का अर्जन होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन 29 में 73 बोलों की पृच्छा है। वहाँ पर तथा भगवती आदि सूत्रों में सर्वत्र पापों के क्षय का ही विधान है। कहीं पर भी पुण्य के क्षय करने का विधि-विधान नहीं आया है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि संसारी जीव के नवम गुणस्थान तक आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का प्रतिक्षण बंध होता रहता है। इन कर्मों के बंध के कारण क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय का उदय है। इनमें से प्रत्येक कषाय के उदय से सातों कर्मों की पुण्य-पाप प्रकृतियों का उपार्जन व बंध होता है और कषाय के क्षय से कर्म बंध का क्षय होता है, परंतु उपर्युक्त विवेचन के अनुसार किसी कषाय के क्षय से किसी विशेष एक कर्म की पाप प्रकृतियों का क्षय और पुण्य प्रकृतियों के उपार्जन का कारण माना जाय तो शेष कर्मों का बंध किससे हो सकता है? उत्तर में कहना होगा कि ऊपर पृथक्-पृथक् कषाय के क्षीण होने
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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