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________________ तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप -- ----------- 85 उपसंहार जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत का उद्देश्य जीव की कर्मजन्य विविध अवस्थाओं का यथातथ्य वर्णन करना है और तत्त्वज्ञान का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति को लक्ष्य में रखकर आत्म-विकास व साधनाओं का वर्णन करना है। कर्म मुख्यत: दो प्रकार के हैं-शुभ और अशुभ। शुभ कर्म वे हैं जो जीव के लिए हितकर, कल्याणकारी, मंगलकारी हैं, आत्मा को पवित्र करने वाले हैं, जो जीव के किसी भी गुण का घात करने वाले नहीं हैं। इन्हें पुण्य कर्म कहा गया है और अशुभ कर्म वे हैं जो आत्मा का पतन करने वाले हैं, अहितकर हैं, इन्हें पाप कर्म कहा गया है। पाप कर्म आत्मा के गुणों का घात करने वाले हैं और मुक्ति में बाधक हैं। अत: पाप कर्मों को आधार बनाकर ही आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष तत्त्व का वर्णन किया गया है। इन तत्त्वों में पुण्य को ग्रहण नहीं किया गया है। कारण कि पुण्य से आत्मा पवित्र होती है, मुक्ति की ओर बढ़ती है, पुण्य मुक्ति में सहायक है, बाधक व घातक नहीं है। अत: परिणामों की विशुद्धि रूप पुण्य तत्त्व से उपार्जित पुण्य कर्मों का आस्रव व अनुभाग जीव के किसी भी गुण का घातक नहीं है। समस्त पुण्य कर्म प्रकृतियाँ पूर्ण रूपेण अघाती हैं, लेश मात्र भी अहितकर नहीं हैं, अत: मुक्ति प्राप्ति के लिए इनके संवर, निर्जरा व क्षय की आवश्यकता ही नहीं है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, संयम, त्याग, तप आदि किसी भी साधना से पुण्य के आस्रव का निरोध व अनुभाग का क्षय नहीं होता है, अपितु वृद्धि होती है। अत: मुक्ति प्राप्ति के अंतिम क्षण तक इनकी सत्ता व उदय रहता है तथा इनका अनुभाग उत्कृष्ट व अक्षुण्ण रहता है। निर्वाण प्राप्ति के समय जब देह का अवसान होता है तब इनका भी स्वत: अवसान हो जाता है अत: यह मान्यता कि"पुण्य कर्म साधना में, वीतरागता में, आत्म विकास में बाधक है, इसलिये
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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