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________________ तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप 73 काय-गुत्तयाए णं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ । -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 55 काय गुप्ति में संवर होता है और फिर संवर से पाप के आस्रव का निरोध होता है। यहाँ संवर से पाप के आस्रव का निरोध होना बताया है, पुण्य के आस्रव का नहीं । जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ || होती है। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 52 सत्य योग से योग (मन-वचन - काया की प्रवृत्ति) की विशुद्धि धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ । धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ । पवयण-पभावेणं जीवे आगमेसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 23 धर्मकथा से जीव के कर्मों की निर्जरा होती है, धर्मकथा से जीव प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना से आगामी काल के भद्रता वाले अर्थात् भविष्य में शुभ फलदायक पुण्य कर्मों का उपार्जन करता है। धर्मकथा धर्मध्यान की तृतीय भावना है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है, स्थिति का क्षय होता है और शुभ कर्मों का उपार्जन (आस्रव) होता है। पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है। जहा उ पावगं कम्मं, रागदोस समज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण ।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 1 भिक्षु राग-द्वेष से उपार्जित पाप कर्म का क्षय तप से जिस प्रकार करता है उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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