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________________ तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ---- ----- 69 अर्थात् संवर के लिए पाप के त्याग को ही ग्रहण किया गया है, पुण्य को नहीं। "एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।।" -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 2 साधक एक ओर से विरति-निवृत्ति करे और एक ओर प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति व संयम में प्रवृत्ति करे। इस दूसरी गाथा में पाप प्रवृत्ति का ही निषेध है और सद्प्रवृत्ति करने का आदेश है। रागदोसे य दो पावे, पाव-कम्म पवत्तणे। जे भिक्खू रुम्भइ निच्चं, से न अच्छइ मंडले।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 31, गाथा 3 पाप कर्म में प्रवृत्ति कराने वाले राग और द्वेष ये पाप हैं, जो भिक्षु इन्हें रोकता है, वह संसार सागर में परिभ्रमण नहीं करता है। तात्पर्य यह है कि जैनागम में संवर तत्त्व में, अनास्रव में केवल पाप के आस्रव के निरोध को ही स्थान दिया गया है, पुण्य के आस्रव के निरोध को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। यही नहीं पुण्य के आस्रव के निरोध को संवर में ग्रहण नहीं किया गया है। कारण कि सकषायी जीवों के पुण्य के आस्रव का निरोध होने पर पाप का आस्रव (पाप कर्मों के दलिकों में वृद्धि) नियम से होता है। पुण्य के आस्रव-निरोध का प्रयास करना पाप के आस्रव को आह्वान करना तथा आमंत्रण देना है। इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीसवें अध्ययन ‘चरण विधि' में इक्कीस गाथाओं में एक से लेकर तेतीस बोल संसार-परिभ्रमण से मुक्त होने के दिये हैं। इन सबमें पाप प्रवृत्ति का ही निषेध किया गया है, पुण्य का
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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