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________________ ------- 61 तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप ---- क्षान्ति क्रोध के अभाव में ही होती है। अतः क्रोध कषाय का अभाव, उपशम या क्षय ही सातावेदनीय का हेतु है। इसी सिद्धांत का प्रतिपादन भगवती सूत्र शतक 7 उद्देशक 6 में किया गया है। आयुकर्म-आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं। इनमें से नरकायु अशुभ है और तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु व देवायु शुभ हैं। इनके बंध के हेतु हैं बह्वा-रम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः। माया तैर्यग्योनस्य। अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य। सराग संयम-संयमासंयमाऽकाम-निर्जरा-बालतपांसि देवस्य। -तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6, सूत्र 16-18 एवं 20 बहुत आरंभ-परिग्रह अर्थात् लोभ कषाय नरकायु के बंध का हेतु है। माया कषाय तिर्यञ्च गति व आयु के बंध का हेतु है। अल्प आरंभपरिग्रह, स्वभाव की मृदुता व सरलता, ये मनुष्यायु के हेतु है। आरंभपरिग्रह में कमी होना लोभ-कषाय की कमी का, स्वभाव की मृदुता मान कषाय की कमी का और सरलता माया कषाय की कमी का अभिव्यक्तक है। अर्थात् लोभ, मान और माया कषाय की कमी से मनुष्यायु का बंध होता है। सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, बालतप और सम्यक्त्व ये देवायु के हेतु हैं। देवायु का उत्कृष्टबंध अप्रमत्त साधु ही करता है। अत: साधुत्व ही देवायु के बंध का हेतु है। इसी तथ्य का प्रतिपादन भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में किया गया है। नामकर्म-नाम कर्म की 93 या 67 प्रकृतियाँ हैं। इन 67 प्रकृतियों में 37 प्रकृतियाँ पुण्य की हैं शेष पाप कर्म की हैं। इनके बंध के हेतु हैं योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। विपरीतं शुभस्य। 'मन, वचन और काया के योगों की वक्रता अर्थात् माया कषाय
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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