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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार 5-THE REAL REPENTANCE आचार में स्थिर जीव को प्रतिक्रमण कहा है - The soul established in self-absorption is repentance (pratikramana) - मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८५॥ जो अनाचार को छोड़कर आचार में स्थिरभाव करता है वह (जीव, साधु) प्रतिक्रमण कहलाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है। The soul – jīva, sādhu – established in self-absorption - ācāra – leaving aside everything that is other than the self - anācāra - is repentance (pratikramana); it is because such a soul is of the nature of repentance. EXPLANATORY NOTE Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra: सुविदिदपदत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥१-१४॥ ऐसा परम मुनि शुद्धोपयोग भावस्वरूप परिणमता है, इस प्रकार वीतराग-देव ने कहा है। कैसा है वह श्रमण अर्थात् मुनि? अच्छी रीति से जान लिये हैं जीवादि नवपदार्थ, तथा इन पदार्थों का कहने वाला सिद्धान्त जिसने। अर्थात् जिसने अपना और पर का भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्वान किया है तथा निजस्वरूप में ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोग वाला है। फिर कैसा है? पाँच इन्द्रिय तथा मन की अभिलाषा और छह काय के जीवों की हिंसा, इनसे आत्मा को रोककर अपने स्वरूप का आचरणरूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तप के बलकर - स्वरूप की स्थिरता के प्रकाश से ज्ञान का तपन (दैदीप्यमान होना) स्वरूप तप - इन दोनोंकर . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . . 169
SR No.034367
Book TitleNiyam Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size4 MB
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