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________________ (7) विभक्त किया जा सकता है-1. सजीव और 2. निर्जीव। जिन पदार्थों में चेतनता, स्पन्दन शीलता, श्वसन आदि क्रियाओं के साथ आहार ग्रहण करने, बढ़ने, प्रजनन करने जैसी प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं वे सजीव कहे जाते हैं तथा शेष समस्त पदार्थ निर्जीव माने गए हैं। जैन आगमों में जीव का प्रमुख लक्षण ज्ञान एवं दर्शन अर्थात् जानना एवं संवेदनशील होना है, किंतु विज्ञान के द्वारा निर्धारित अन्य लक्षण भी जीव में स्वीकार करने में जैनागमों को आपत्ति नहीं है। परंतु वे लक्षण संसारी जीवों पर ही लागू होंगे, सिद्ध अथवा मुक्त जीवों पर नहीं। आगम के अनुसार जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और सिद्ध। विज्ञान के द्वारा निर्धारित लक्षण संसारी जीवों पर ही लागू होते हैं, सिद्ध जीवों पर नहीं। अभी वैज्ञानिकों को आत्म-तत्त्व अथवा शरीर से भिन्न जीव-तत्त्व का प्रतिपादन करना शेष है, क्योंकि आत्मा अरूपी एवं अपौद्गलिक होने के कारण पौद्गलिक प्रयोगों की पकड़ में नहीं आता, तथापि परामनोविज्ञान जैसी वैज्ञानिक शाखाएँ आत्मा के अस्तित्व एवं पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हैं। जीव के भेदों का जैनदर्शन में विविध रूप में निरूपण है। गति की दृष्टि से संसारी जीव चार प्रकार के हैं-नरकगति में रहने वाले, तिर्यञ्चगति में रहने वाले, मनुष्यगति में रहने वाले और देवगति में रहने वाले। इन्द्रियों की दृष्टि से वे पाँच प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय। स्थावर एवं त्रस के भेद से ये जीव दो प्रकार के भी हैं, किंतु लेखक ने काया की दृष्टि से प्रतिपादित छह भेदों को प्रमुखता देकर उनका क्रमश: निरूपण किया है। वे छह भेद हैंपृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय।
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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