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________________ 14 जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य स्थिति में ही विश्रान्ति का अनुभव होता है। विश्रांति में ही शान्ति, शक्ति, सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है। शान्त चित्त में ही विवेक की जागृति तथा सत्य की जिज्ञासा होती है, त्याग का सामर्थ्य आता है और प्रवृत्ति करने की शक्ति आती है। अत: जितनी-जितनी निर्विकल्पता गहन होती जाती है अर्थात् दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान बढ़ता जाता है। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है वैसे-वैसे राग-द्वेष-मोह आदि दोषों में कमी आती जाती है। निर्विकल्पता का रस निराकुल होता है, निज के चिन्मय स्वरूप का होता है-सच्चा वास्तविक सुख होता है, यह विषय-सुख से भिन्न-विलक्षण होता है। विषय सुख की प्रतीति तो इन्द्रिय व मन के उत्तेजित होने पर सक्रिय होने पर होती है। उसमें आकुलता, जड़ता, पराधीनता रहती ही है। जबकि निर्विकल्पता का सुख निराकुल, निर्विकार, स्वाधीन एवं चिन्मय होता है। जब तक व्यक्ति कामना अपूर्ति जनित दु:ख को दूर करने के लिए वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि अपने से भिन्न पदार्थों का आश्रय लेता है, तब तक वह पराधीनता, जड़ता, नीरसता आदि दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। जो व्यक्ति कामना अपूर्ति के दु:खों का कारण कामना उत्पत्ति को मानता है, वह कामना रहित अर्थात् निर्विकल्प हो जाता है। उसे ही शान्ति का रस मिलता है, जो वास्ततिक सुख है। यही नहीं कामना पूर्ति के समय जो सुख होता है वह भी उस समय कामना के न रहने से, कामना का अभाव होने पर चित्त के शान्त होने से, निर्विकल्प होने से होता है। जो इस सत्य का अनुभव कर लेता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उस सुख को कामना पूर्ति से मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसकी यह
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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