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________________ 12 जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य निर्विकल्पता है। समता और निर्विकल्पता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ निर्विकल्पता है वहाँ ही दर्शन है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहाँ समता (समभाव) है, वहाँ ही दर्शन हे। अतः जैसे-जैसे विकल्प घटते जाते हैं और समता या निर्विकल्पता पुष्ट होती जाती हैबढ़ती जाती है, वैसे-वैसे दर्शन गुण प्रकट होता जाता है। दर्शन गुण का प्रकटीकरण स्व-संवदेन रूप में होता है। अत: जैसे-जैसे दर्शन गुण का विकास या प्रकटीकरण होता जाता है, वैसे-वैसे स्व-संवेदन (आत्मानुभव-स्वानुभव गुण) की स्पष्टता-सूक्ष्मता प्रकट होती जाती है। चेतना का विकास होता जाता है। दुःख किसी को भी पसंद नहीं है, परन्तु सुख के भोगी को न चाहते हुए भी दुःख भोगना ही पड़ता है, क्योंकि विषय-कषाययुक्त भोगों के सुखों के साथ पराधीनता, जड़ता, अभाव, भय, चिन्ता, खिन्नता, शक्तिहीनता, वियोग, प्रतिकूलता, आकुलता आदि दुःख सदैव जुड़े रहते हैं। सुख में जीवन बुद्धि होने पर सुख की आशा, सुख की दासता, सुख के प्रलोभन में आबद्ध प्राणी प्रथम तो अपने दुःखों का कारण अपने को नहीं मानकर अन्य वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति को मानता है और भोग्य वस्तुओं का आश्रय लेकर परिस्थिति को बदलकर इन दुःखों को दूर करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा किसी के लिए भी संभव नहीं हुआ। द्वितीय बात यह है कि विवेक या तटस्थ विचार से वह इस सत्य को भी जान भी लेता है कि इन दुःखों का कारण मैं स्वयं हूँ, मेरी सुखभोग की इच्छाएँ हैं, फिर भी वह इस सत्य की उपेक्षा करता है। वह अपनी सुख की दासता को नहीं छोड़ना चाहता है, क्योंकि उसकी यह मान्यता होती है कि यह विषय सुख ही जीवन है। यह सुख नहीं है तो जीवन का कोई
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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