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________________ 252 जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य physical concept. All other Indian systems spoke of sound as a quality of space. But it explains in relation with material particles as a result of concision of atmospheric molecules. To prove this the Jain thinkers employed arguments which are now generally found in text books of physics. यहाँ यह दिखलाया गया है कि अन्य सब भारतीय विचारधाराएँ शब्द को आकाश का गुण मानती रही हैं, जबकि जैनदर्शन उसे पुद्गल मानता है। जैनदर्शन की इस विलक्षण मान्यता को विज्ञान ने प्रमाणित कर दिया है। शब्द पर्याय जैनदर्शन में शब्द का प्रयोग 'ध्वनि' के लिए हुआ है। ध्वनि का वर्तमान में जिस प्रकार का उपयोग हो रहा है उससे यह पौद्गलिक है यह स्पष्ट सिद्ध हो रहा है। आज ध्वनि को मापने के यंत्र बन गये हैं तथा ध्वनि का उपयोग मानव की अनेक प्रकार की सेवाओं में किया जा रहा है। ध्वनि-मापन यंत्र से ज्ञात हुआ है कि मनुष्य के कान केवल स्पंदनक्षेत्र की ध्वनि को ही सुन सकते हैं। इन स्पंदन लहरों से ऊँची तथा नीची ध्वनि को कान सुनने में असमर्थ है। ऐसी ध्वनि को श्रवणोत्तर ध्वनि कहते हैं। मनुष्य प्रति सैकेण्ड 20,000 से अधिक तथा 2,000 से कम चक्र वाली ध्वनि को नहीं सुन सकता है। केवल प्रति सैकेण्ड दो हजार से अधिक और बीस हजार से कम स्पंदन वाली ध्वनि को ही सुन सकता है। श्रवणोत्तर ध्वनि के क्षेत्र ऊँची स्पंदन वाली गति (पन्द्रह हजार प्रति सैकेण्ड से कई लाख प्रति सैकेण्ड) को भी दो भागों में बाँटा गया है। पन्द्रह के निकट गति वाली लघु श्रवणोत्तर (लो अल्ट्रा सौनिक) तथा पचास हजार से अधिक गति वाली उच्च श्रवणोत्तर ध्वनि (हाई अल्ट्रा सौनिक) कही जाती है।
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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