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________________ 184 जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य जैन विश्व सिद्धांत तथा धन और ऋण वक्रता स्वीकार करने वाले वैज्ञानिक विश्व सिद्धांत का समन्वय संभव है। आकाश के सांत होते हुए भी हम उसकी सीमा को नहीं पा सकते। इस सिद्धांत को एक अन्य वैज्ञानिक पोइनकेर (Poine-care) ने काफी स्पष्ट किया है-सांत आकाश का क्या अर्थ है? आकाश यदि सांत है तो उसके परे क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर पोइनकेर ने इस प्रकार किया है। “अपना विश्व एक अत्यन्त विस्तृत गोले के समान है और विश्व में उष्ण तापमान का विभागीकरण इस प्रकार हुआ है कि गोले के केन्द्र में उष्ण तापमान अधिक है और गोले की ओर क्रमश: घटता हुआ। विश्व की सीमा (गोले की अंतिम सतह) पर वह वास्तविक शून्य को प्राप्त होता है। सभी पदार्थों का विस्तार उष्ण तापमान के अनुसार से होता है। अतः केन्द्र की ओर से सीमा की ओर हम चलेंगे तो हमारे शरीर का तथा जिन पदार्थों के पास से हम गुजरेंगे, उन पदार्थों का भी विस्तार क्रमश: कम होना प्रारंभ हो जायेगा किंतु हमें इस परिवर्तन का कोई अनुभव नहीं होगा। यद्यपि हमारा वेग दिखने में वही रहेगा, किंतु वस्तुत: घट जायेगा और हम कभी सीमा तक नहीं पहुंच पायेंगे। अत: यदि केवल “अनुभव के आधार पर कहें तो हमारा विश्व अनंत है, किंतु वस्तुवृत्या तो हम ‘अतं' को पा नहीं सकते। हमारी पहुँच केवल एक सीमा तक रहेगी। उसके बाद आकाश अवश्य होगा, किंतु हमारी पहुँच से बाहर है।" इस उद्धरण और उदाहरण में पोइनकेर ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि हमारे विश्व के उष्ण तापमान का विभागीकरण इस प्रकार है कि ज्यों-ज्यों हम सीमा के समीप 1. जैन भारती, 15 मई, 1966 2. दी नेचर ऑफ दी फिजीकल रियलिटी, पृष्ठ 163 तथा फाउण्डेशन्स ऑफ साइन्स, पृष्ठ 175
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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