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________________ आकाशास्तिकाय 181 अर्थात् सभी द्रव्यों का भाजन एवं अवगाहना लक्षण वाला आकाश है। आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश एवं अलोकाकाश। जैनदर्शन के समान ही विज्ञान जगत् में भी 'आकाश' का एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया है। नयी भौतिकी संकेत देती है कि देश और काल के भीतर केवल द्रव्य और विकिरण ही नहीं, बहुत-सी और चीजें हैं, जिनका अपना महत्त्व है। डॉ. हेनशा का मत है These four elements (Space, Matter, Atime and Medium of motion) are all separate in our mind. We can not imagine that the one of them could depend on another or converted into another. अर्थात् आकाश, पुद्गल, काल और गति का माध्यम (धर्म) ये चारों तत्त्व हमारे मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न हैं। हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि ये एक-दूसरे पर निर्भर रहते हों या एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हों। इससे जैनदर्शन के इस सिद्धांत की पुष्टि होती है कि सभी द्रव्य स्वतन्त्र परिणमन करते हैं और कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता है। धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगुत्ति पण्णतो, जिणेहि वरदंसीहिं।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 28, गाथा 7 लोगालोगे य आगासे। -उत्तराध्ययन, अध्ययन 36, गाथा 7 अर्थात् जिसके अंदर धर्म, अधर्म, आकाश काल, पुद्गल और जीव रहते हों उसको सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान ने लोक कहा है और
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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