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________________ वनस्पति में संवेदनशीलता 127 प्रत्येक टेंटेकिल में एक छोटा डंठल होता है जिसके सिरे पर एक फूली हुई घुडी रहती है। पुंडी में से लाल, गुलाबी रंग का गाढ़ा सा रस निकलकर पुंडी के चारों ओर की पत्तियों पर फैल जाता है। जो धूप में दूर से ही ओस कणों के समान बहुत तेज चमकता है। कुछ कीड़े धुंडी पर बैठते ही रस में चिपक जाते हैं। जैसे-जैसे कीड़ा अपने को छुड़ाने का प्रयत्न करता है वह और भी अधिक चिपकता जाता है। साथ ही पत्ती के बीच का भाग दबकर प्याले की तरह हो जाता है। टेंटेकिल मुड़कर कीड़े को इसी प्याले में डाल देता है। अन्य टेंटेकिल भी साथ ही मुड़कर अपनी-अपनी धुंडियों द्वारा कीड़े को प्याले में दबोचते हैं। इस प्रकार कीड़ा इस प्याले में कैद हो जाता है। फिर टेंटेकिल की घुण्डियों से एक प्रकार का रस निकलता है जो कीड़े के पाच्य भाग को धुला देता है। इसी विलयन को फिर टेंटेकिल चूसकर पौधे का आहार बना देते हैं। टेंटेकिल वापस सीधे खड़े हो जाते हैं। कीड़े का जो भाग पचने से बच जाता है, वह पत्ती से झड़कर नीचे गिर जाता है। आशय यह है कि वनस्पतियाँ भी मायाजाल रचने में मनुष्य की भाँति विविध उपाय काम में लेती हैं। लोभ-राग, आकर्षण या आसक्ति को लोभ कहा गया है। आगम में लोभ के रूप इस प्रकार कहे हैं-लोभे, इच्छा, मुच्छा, कंखा, गेही, तिण्हा, भिज्जा, अभिज्जा, कामासा, भोगासा, जीवियासा, मरणासा, नंदी, रागे॥ -समवायांग, 52 अर्थात् लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिद्या, अभिद्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग, ये लोभ के रूप हैं। आगम में लोभ के ये रूप अन्य प्राणियों के समान वनस्पतियों
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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