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________________ चतुर्थ अध्ययन की टिप्पणी छज्जीवणिया (षट्जीवनिकाय) संसार में समस्त जीव राशि के जीव छह प्रकार के हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । आचारांग सूत्र के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में भी ये ही छह प्रकार बतलाये गये हैं। परन्तु वहाँ तेजस्कायिक के पश्चात् वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और वायुकायिक कहे गये हैं। वैसे प्रश्न व्याकरण सूत्र के प्रथम अधर्म द्वार में भी पाँच भागों में हिंसा रूप अधर्म का स्वरूप और फल बतलाये गये हैं, जो पाठकों के लिये विशेषतः मननीय हैं। आचारांग सूत्र में हिंसा के प्रमुख चार कारण बतलाये गये हैं-(1) अपने जीवन के लिये, (2) मान-सम्मान और पूजा के लिये, (3) जन्म-मरण से छूटने के लिये, (4) दुःख-प्रतिकार के लिये । इन चार कारणों से पृथ्वी आदि जीवों का आरम्भ किया जाता है। ज्ञानी के लिये ये आरम्भ जानकर छोड़ने योग्य हैं (1) अनेक प्रकार के शस्त्रों से मानव पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करता है। भगवान ने कहा है कि जो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है और करने वाले का अनुमोदन करता है, वह उसके अहित के लिये होती है और उसकी अबोधि के लिये होती है। कुछ लोगों को तीर्थंकर भगवान या मुनियों के समीप सुनकर यह ज्ञात होता है कि हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, मृत्यु है और नरक है। पृथ्वी आदि जीवों का जीवन और वेदना का ज्ञान पृथ्वीकायिक आदि जीवों के जीवन और वेदना के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में कहा है कि पृथ्वीकायिक आदि जीव जन्म से इन्द्रिय विकल मनुष्य की तरह अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। जैसे इन्द्रिय-विकल मनुष्य को शस्त्र से अंगों का छेदन-भेदन करने पर कष्टानुभूति होती है, ऐसे ही पृथ्वीकायिक आदि जीवों को भी होती है। मेधावी पुरुष ऐसा जानकर पृथ्वी आदि का आरम्भ नहीं करते, दूसरों से आरम्भ नहीं करवाते और करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करते। (2) पृथ्वीकाय की तरह जलकाय में भी जीवों का अस्तित्व माना गया है। गृहस्थ नाना प्रकार के शस्त्रों से जल सम्बन्धी क्रिया में जलकायिक जीवों की हिंसा करता है। वहाँ जलकायिक जीवों के अतिरिक्त उनके आश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करता है। जैसे-मनुष्य को मूर्च्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसको कष्टानुभूति होती है, ऐसे ही जलकायिक जीवों को भी कष्टानुभूति होती है। प्रभु ने कहा है-जल स्वयं जीव रूप है। हे पुरुष ! जलकायिक जीवों के शस्त्रों का चिन्तन कर । जलकायिक जीवों के शस्त्र अनेक प्रकार के हैं-उनका प्रयोग करना, हिंसा और अदत्तादान है। (सूत्र संख्या 57-58) जैन दर्शन में अप्काय के तीन प्रकार कहे गये हैं-(1) सचित्त-जीव सहित, (2) अचित्त-निर्जीव और (3) मिश्र-सचित्त और अचित्त दोनों ही। जलकाय के सात शस्त्र कहे गये हैं-1. उत्सेचन-जल को सींचना, 2. गालन-छानना, 3. धोवन-वस्त्रादि धोना, 4.स्वकाय-शस्त्र, 5. परकाय शस्त्र-मिट्टी, तेल, शर्करा, क्षार, अग्नि आदि, 6. तदुभय शस्त्र-भीगी हुई मिट्टी, 7.
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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