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________________ [67 चतुर्थ अध्ययन जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणेइ। जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद जानता यहाँ जो जीवों को, एवं अजीव को भी जाने । जो जीव-अजीव युगल जाने, वह ही नर संयम को जाने ।। अन्वयार्थ-जो जीवे विवियाणेइ = जो जीवों को जानता है। अजीवे विवियाणेड = अजीवों को भी जानता है। जीवाजीवे वियाणंतो = जीव और अजीव को जानता हुआ । सो = वह । हु = निश्चय से । संजमं = संयम-धर्म को । नाहीड = जान सकेगा। भावार्थ-जीव और अजीव को जानने वाला संयम-धर्म को बराबर जान सकेगा तथा विधिवत् उसका पालन भी कर सकेगा। जो एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को जानता है और अजीवों को भी जानता है । जीव को जीव रूप से जानने वाला उनकी रक्षा कर सकेगा। किसी के साथ वैर भाव भी नहीं रखेगा और जिससे किसी को पीड़ा हो, वैसा व्यवहार भी नहीं करेगा। जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाणइ। तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद जब जीवों और अजीवों का, दोनों का ज्ञाता हो जाता। तब बहु विध गति सब जीवों की, वह बिना कहे अवगत करता ।। अन्वयार्थ-जया = जब । जीवमजीवे य = जीव और अजीव ।दो वि एए वियाणइ (वियाणेइ)= इन दोनों को जान लेता है। तया सव्वजीवाण बहुविह= तब सब जीवों की बहुत भेदों वाली । गई = नरक-तिर्यंच आदि नानाविध गतियों को भी। जाणइ = वह साधक जान लेता है। भावार्थ-जब साधक जीव और अजीव इन दोनों को बराबर जान लेता है, तब वह उन जीवों की नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव रूप विविध गतियों को भेद-प्रभेद के साथ जान लेता है। छोटे-बड़े जीवों को जानने के साथ ही यह जिज्ञासा उत्पन्न होनी सहज है कि ये विभिन्न गतियाँ किस कारण से प्राप्त होती हैं ? जया गई बहुविहं, सव्व जीवाण जाणइ। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ ।।15।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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