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________________ चतुर्थ अध्ययन] [61 से युक्त साधु-साध्वी दिन में या रात्रि में हर प्रकार की स्थिति में कीट, पतंगा, कुंथु या पिपीलिका आदि त्रसजीव में से शरीर के किसी अंग पर हाथ, पैर, भुजा, वक्ष, जँघा, उदर या सिर ऐसे शरीर के किसी भी अंग पर अथवा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, रजोहरण, गोच्छग, उडग, ( स्थंडिल पात्र) तथा दण्ड, पीठ, चौकी, फलक, पाट, शय्या और संस्तारक तथा अन्य किसी उपकरण पर कोई जन्तु चला आया हो तो उसको वहाँ से यतनापूर्वक सम्यक् प्रकार से देखकर और प्रमार्जन कर के एकान्त में अलग रख दे। उनको इकट्ठा करके रखने से उनमें अगर पीड़ा उत्पन्न हो तो ऐसा भी नहीं करे। उनको अलग-अलग छोड़े । साधक शरीर पर चलते किसी भी जीव को यतना से हटाकर एकान्त में छोड़ दे । अजयं चरमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ | बंधइ पावयं कम्मं, तं से होड़ कडुयं फलं ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद अयत्न से चलने वाला, प्राणी की हिंसा करता है। वह बन्ध पाप का करता है, इससे कड़वा फल मिलता है ।। = अन्वयार्थ-अजयं = अयतनापूर्वक । चरमाणो य = चलता हुआ संयमी । पाणभूयाई हिंसइ प्राणभूत की अर्थात् छोटे-बड़े जीवों की हिंसा करता है। बंधड़ पावयं कम्मं = इससे पाप कर्म का बन्ध करता है । तं से = वह पाप कर्म उस प्राणी के लिये । कडुयं फलं हो कटुक फल देने वाला होता है । = भावार्थ-अयतना से चलने वाला साधु त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करता है, क्योंकि जब साधक अगल-बगल में देखते और बात करते हुए चलता है, तब आगे भूमि पर बराबर ध्यान नहीं रहता, परिणामस्वरूप आने वालों से टकरा जाना, ठोकर खाना और जीवजन्तु पर पैर पड़ना भी सम्भव है। ईर्या में पूरा ध्यान नहीं रखना ही अयतना है। अयतना से चलने पर विकलेन्द्रिय-कीट, पतंगादि प्राण और भूत-वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा होती है। हिंसा के कारण पाप कर्म का बन्ध होता है और वह कटु फल देने वाला होता है । अजय चिट्ठमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधड़ पावयं कम्मं, तं से होइ कडुयं फलं ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद अयत्न से जो खड़ा रहे, प्राणी की हिंसा करता 1 वह बन्ध पाप का करता है, इससे कड़वा फल मिलता है ।। = अन्वयार्थ - अजयं चिट्ठमाणो य = अयतना से खड़ा रहता हुआ संयमी । पाण भूयाई हिंसइ प्राणियों की हिंसा करता है । बंधड़ पावयं कम्मं = इससे पाप कर्म का बन्ध करता है। तं से कडुयं फलं होइ = जो उसके लिये कटु फलदायी होता है ।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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