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________________ चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया (षड् जीवनिका) उपक्रम इस अध्ययन में षट्काय के जीवों के रक्षण का उपदेश दिया गया है । अत: इसको धर्म प्रज्ञप्ति भी कहा है। निर्युक्तिकार ने इसके पर्यायवाचक 6 नाम बताये हैं । जैसे- “जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपण्णत्ती । ततो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे य एगट्ठा।” (दशवैकालिक नियुक्ति 4 / 233 ) मुक्तिमार्ग में आरोहण का क्रम इसमें बहुत ही सुन्दर ढंग से बतलाया गया है । सर्वप्रथम जीवाजीव का ज्ञान प्राप्त करता है 1, जीवाजीव के ज्ञान में सब जीवों की गति जानता है 2, फिर पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को जानता है 3, फिर भोगों से निर्वेद प्राप्त करता है 4, संयोग का त्याग करता है 5, मुण्डित होकर अनगार धर्म धारण करता है 6, उत्कृष्ट संवर-धर्म का स्पर्श करता है 7, अबोधिकृत कर्म-रज को अलग करता है 8, सर्वव्यापी ज्ञान प्राप्त करता है 9, लोक- अलोक को जानता है 10, मन, वचन और काय के योगों का सम्पूर्ण निरोध करता है 11, आठों कर्मों का क्षय कर सम्पूर्ण कर्मों से रहित होकर सिद्धि प्राप्त करता है 12, लोकाग्र पर शाश्वत् सिद्ध होता है 13। इस अध्ययन में शास्त्रकार चारित्र - धर्म की शिक्षा देते हैं । उन्होंने पाँच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन-विरमण रूप मुनि-धर्म का प्रतिपादन कर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय की त्रिकरण, त्रियोग से सम्पूर्ण हिंसा-त्याग की शिक्षा दी है। इस प्रकार इस अध्ययन से चारित्र-धर्म का सम्पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। गद्य पाठ के पश्चात् 28 गाथाओं में चारित्र-धर्म की साधना में यतना की प्रधान और साधना का क्रम बतलाया गया है। चलने, फिरने, बैठने, खड़े रहने, सोने, बोलने और खाने की प्रवृत्ति में पाप कर्म की सम्भावना होती है, किन्तु यतना से क्रिया करने वाला पापकर्म का बंध नहीं करता । इस विधि से पाप से बचने का मार्ग बतलाया गया है। इस अध्ययन की यह विशेषता है कि चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् भी जो इन्द्रिय-सुख की चाह और प्रार्थना करने वाला है, सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए आकुल रहता है, अतिशय निद्रालु और बार-बार हाथ-पैर आदि को धोने वाला है, उसकी सद्गति दुर्लभ होती है । सुलभ सद्गति किनकी होती है-इसका भी स्पष्टीकरण किया गया है। जो साधक तपगुण की प्रधानता वाले हों, सरल मन वाले हों और मोक्षमार्ग में मति वाले हों, क्षमा एवं संयम में रमण करते हों, आये हुए परिषहों को शान्त भाव से सहन करते हों, उनकी सुगति सुलभ होती है ।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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