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________________ [27 तृतीय अध्ययन - टिप्पणी] 26. गिहतर निसिज्जा (गृहान्तर निषद्या)-भिक्षा के लिये गये हुए साधु-साध्वी का गृहस्थ के घर में बैठना अकल्प्य है। जैसाकि कहा है-“गोयरग्ग-पविट्ठो य, न निसीएज्ज कत्थइ।” चूर्णिकार जिनदास और हरिभद्र के अनुसार घर में अथवा दो घरों के अन्तर में बैठना, ऐसा अर्थ इसका किया गया है। रोगी, तपस्वी और वृद्ध के लिए बैठना अनाचार नहीं है। स्वस्थ दशा में गृहस्थ के घर में बैठने को ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, प्राणियों का वध, याचकों के प्रतिघात और गृहपति के क्रोध का कारण बतलाया गया है। अत: गृहान्तर निषद्या अनाचार है। 27. गायस्सुव्वट्टण (गात्र उद्वर्तन)-शरीर पर पीठी आदि का मलना साधु के लिये अनाचार है। शरीर की विभूषा सावध बहुल है, इससे कर्म-बन्ध होता है। अत: नियुक्ति के छठे अध्ययन में कहा गया है-सिणाणं अदुवा कक्कं, लोद्धं पउमगाणि य । गायस्सुव्वट्टणाए नायरंति कयाइवि ।।द.6 ।। अर्थात् साधु स्नान नहीं करते तथा कल्क, लोध्र और पद्म को शरीर के उद्वर्तन के लिए कभी उपयोग में नहीं लेते। 28. गिहिणो वेयावडियं (गृहि वैयावृत्त्य)-गृहस्थ की वैयावृत्त्य करना अनाचार है। साधु को गृहस्थ के साथ अन्नादि का संविभाग करना या गृहस्थ का आदर तथा उपकार करना एवं उन्हें अन्नादि देना और उनकी सेवा करना साधु के लिए अकल्प्य है। 29. आजीववत्तिया-जाति, कुल आदि बतलाकर आजीविका करना साधु के लिये अकल्पनीय है। स्थानांग सूत्र के पाँचवें स्थान में 5 प्रकार की आजीववृत्ति बतलाई है। जैसे-पंचविहे आजीविए पण्णत्ते तं जहा 1. जाति आजीवे, 2. कुलाजीवे, 3. कम्माजीवे, 4. सिप्पाजीवे, 5. लिंगाजीवे । ___ अर्थात् जाति, कुल, कर्म, शिल्प और लिंग के माध्यम से आहार आदि प्राप्त करना यह पाँच प्रकार की आजीववृत्ति कही गई है। व्यवहार भाष्य में तप और श्रुत को मिलाकर 6 प्रकार की उपजीविका करने वाले को कुशील सेवी कहा है। मैं अमुक जाति, कुल या गण का हूँ तथा मैं अमुक कर्म अथवा शिल्प में कुशल हूँ। मैं बड़ा तपस्वी एवं बहुश्रुत हूँ। ऐसा कहकर या अन्य प्रकार से बतलाकर आहार आदि लेना साधु का अनाचार है। ऐसा करने से दीनता या जिह्वा लोलुपता प्रकट होती है, इसलिए इस आजीववृत्ति का निषेध किया गया है। 30. तत्तानिव्वुड भोइत्तं (तप्तानिवृत्त भोजित्व)-गर्म होकर जो शीतल हो गया हो ऐसे जल का सेवन करना । फल, फूल, धान्य आदि सब वस्तुएँ जो पहले सचित्त होती हैं, पेड़-पौधों से अलग होने पर एवं दलने पर अथवा गरम आदि होने पर उनमें से सब जीव च्युत हो जाते हैं, मात्र शरीर रह जाता है तब सब वस्तुएँ अचित्त बन जाती हैं। जीवों का शरीर से च्यवन काल-मर्यादा से स्वयं होता है और प्रतिकूल पदार्थ के संयोग से काल पूर्ण होने के पहले भी हो जाता है। जीवों की मृत्यु के कारणभूत पदार्थ को शस्त्र कहते हैं । सचित्त जल और वनस्पति अग्नि से उबालने पर अचित्त हो जाते हैं। कदाचित् वे पूर्ण मात्रा में उबाले हुए न हों तो वे उस स्थिति में मिश्र होते हैं। उनमें सचित्त-अचित्त-मिश्रित भाव होता है। ऐसा पदार्थ तप्तानिवृत्त कहलाता है। तप्तानिवृत्त जल का ग्रहण निषिद्ध है। आगे कहा है कि-"उसिणोदगं तत्तफासुयं पडिगाहेज्ज संजए।" (दशवैकालिक सूत्र 8/6) यहाँ गर्म जल जो उबालकर प्रासुक किया जा चुका है, उसके लेने का विधान है। कुछ आचार्य “तत्तानिव्वुड भोइत्तं' इस पद में भोइत्त' शब्द से जल की तरह अन्न का भी ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार एक बार भुने हुए धान्य को लेने
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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