SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 308] [दशवकालिक सूत्र अन्वयार्थ-केवलिभासियं = सर्वज्ञों द्वारा कही हुई । सुयं चूलियं तु = श्रुतज्ञान रूपी विविक्तचर्या चूलिका का। पवक्खामि = (मैं) वर्णन/कथन करता हूँ। जं = जिसे । सुणित्तु = सुनकर । सुपुण्णाणं (सुपुन्नाणं) = पुण्यशाली जीवों की । धम्मे = धर्म में । मई = मति/श्रद्धा । उप्पज्जए = उत्पन्न हो जाए। भावार्थ-शास्त्रकार कहते हैं-“मैं उस चूलिका को कहूँगा जो मैंने सुनी है, और जो केवली भाषित है, जिसे सुनकर भाग्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती है।" अणुसोय-पट्ठिए बहुजणम्मि, पडिसोय-लद्ध-लक्खेणं। पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद है बहुजन यहाँ स्रोतगामी, सब भोग मार्ग पर जाते हैं। प्रतिस्रोत गमन का लक्ष्य उन्हें, जो मुक्तिभाव अपनाते हैं।। जो विषय-भोग से हो विरक्त, और चाह रहा संयम-सेवन । वैसे जन अपनी आत्मा का, प्रतिस्रोत भाव में करे रमन ।। अन्वयार्थ-जिस प्रकार नदी में गिरा हुआ काष्ठ नदी-प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर ही बहता जाता है उसी प्रकार-बहुजणम्मि = बहुत से मनुष्य । अणुसोय पट्ठिए = काम-भोग, रूपी विषयों के प्रवाह के वेग से संसार रूपी समुद्र की ओर बहते हैं, किन्तु । पडिसोयलद्धलक्खेणं = उस विषय-भोगों के प्रवाह से छूटकर । होउकामेणं = मुक्ति पाने की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि वे। अप्पा = अपनी आत्मा को । पडिसोयमेव = सदा विषय-काम-भोगों के उस प्रवाह से । दायव्वो = दूर रखें। भावार्थ-अधिकांश सांसारिक लोग अनुस्रोत में यानी संसार प्रवाह में बह रहे हैं-भोगमार्ग की ओर जा रहे हैं। किन्तु जो मुक्त होना चाहता है वह प्रतिस्रोत में गति करने का लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है। जो विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम की आराधना करना चाहता है, उसे अपनी आत्मा को इस स्रोत के प्रतिकूल ले जाना चाहिये । अर्थात् विषयानुरक्ति से अपनी आत्मा को मोड़कर भोगमार्ग के प्रतिकूल त्वरित गति से चल देना चाहिये। अणुसोयसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद साधारण जन अनुस्रोत गमन, करने में अतिशय सुख पाता। पर जो सुविहित है साधु यहाँ, प्रतिस्रोत गमन उसको भाता ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy