SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम चूलिका] [301 हिन्दी पद्यानुवाद रहता श्रमण आदि अब तक तो, गणी वा बहश्रुत मुनि होता। जिनवर उपदिष्ट श्रमण पथ में, कर रमण आत्मज्ञानी होता ।। ऐसे दिन नहीं मुझे देखने को, फिर मिले इस जग में। निश्चय न कभी वापिस मुझको, चक्कर खाना पड़ता भव में ।। अन्वयार्थ-संयम-भ्रष्ट साधु इस प्रकार विचार करता है कि :-जइऽहं = यदि मैं साधुपना नहीं छोड़ता और। भावियप्पा (भाविअप्पा) = भावितात्मा होकर। जिणदेसिए = जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट । सामण्णे परियाए = श्रमण पर्याय में । रमंतो = रमण करता हुआ यानी श्रामण्य का पालन करता हुआ। बहुस्सुओ = बहुश्रुत होता अर्थात् शास्त्रों का अभ्यास करता रहता तो। अज्ज = आज । अहं = मैं । गणी = गणि पद पर, आचार्य पद पर । हुंतो = सुशोभित होता । भावार्थ-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत गणी हो जाता, यदि जिनोपदिष्ट श्रमण पर्याय (चारित्र) में अब तक रमण करते रहता। देवलोगसमाणो य, परियाओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं च, महाणरयसारिसो।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद संयम में रत ऋषि मुनियों का, जीवन अनुपम सुन्दर होता। देवलोक सदृश निश्चित, सुखदायक वह जीवन होता ।। किन्तु न तो संयम रत हैं, उनके जीवन का क्या कहना। महानरक के तुल्य दुःखद, जीवन में घुट घुट कर मरना ।। अन्वयार्थ-महेसिणं = जो महर्षि । रयाणं = संयम में रत रहते हैं उनके लिए। परियाओ= संयम पर्याय । देवलोग समाणो य = देवलोक के सुखों के समान आनन्ददायक है। च = पर । अरयाणं = संयम में अरतों को यानी संयम में रुचि नहीं रखने वालों को । महाणरय सारिसो = वह संयम महानरक के सरीखा दुःखदायी प्रतीत होता है। भावार्थ-संयम में रत महर्षियों के लिये मुनि पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है पर जो संयम में रत नहीं रहते उनके लिये वही मुनि पर्याय महानरक के समान दुःखदायी होता है। अमरोवमं जाणिय सुक्खमुत्तमं, रयाण परियाइ तहाऽरयाणं । नरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं, रमिज्ज तम्हा परियाइ पंडिए।11।। हिन्दी पद्यानुवाद संयमरत सुखद मुनि जीवन, देवोपम उत्तम समझ सतत । है नरक समान दु:खद जीवन, जो संयम से रहे विरत ।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy