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________________ प्रथम चूलिका [295 यद्यपि गृही घर में ये सुख, सर्वथा सुलभ हो जाते हैं। जिससे इस सुख का महत्त्व, दु:ख के कारण बन जाते हैं ।। अन्वयार्थ-गिहिणं = गृहस्थों के। काम भोगा = काम भोग । बहुसाहारणा = तुच्छ एवं साधारण हैं। भावार्थ-14. गृहस्थों के कामभोग बहुजन सामान्य हैं, अर्थात् सर्व साधारण के लिये भी सर्वथा सुलभ हैं। उसमें परिवार के सब सदस्य भागीदार हैं। 15. पत्तेयं पुण्ण-पावं। ___16. अणिच्चे खलु भो ! मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिंदु चंचले। हिन्दी पद्यानुवाद होते हैं हर प्राणी के ये, पुण्य-पाप अपने सारे । कोई न किसी का बाँट सके, ना भोग कर्म जाते टारे ।। है मानव का जीवन अनित्य, कुश-अग्र बिन्दु चंचल जैसे। हाँ ! हो जाय इसका विनाश, कब और कहाँ किसका कैसे ।। अन्वयार्थ-पत्तेयं = प्रत्येक प्राणी के । पुण्ण-पावं = पुण्य और पाप अलग-अलग हैं अर्थात् प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगते हैं। भो ! = हे आत्मन् ! मणुयाण = मनुष्यों का। जीविए = जीवन । कुसग्ग-जल-बिंदु-चंचले = कुश के अग्र भाग पर रही हुई जल बिन्दु के समान अति चंचल है, क्षण भंगुर है और । अणिच्चे खलु = निश्चय ही अनित्य है, क्षणिक है। भावार्थ-15. प्रत्येक प्राणी का पुण्य और पाप अपना-अपना स्वतन्त्र होता है। 16. ओह ! मनुष्य का जीवन अनित्य है, कुश के अग्रभाग की नोक पर स्थित जल बिन्दु के समान चंचल है। 17. बहुं च खलु भो ! पावं कम्मं पगडं। हिन्दी पद्यानुवाद सोचे, इसके पहले हमने, बहु-पाप किये इस जीवन में । जानूँ ना उद्धार मेरा, होगा कैसे अब इस तन में ।। जो जैसा करता है जग में, वह वैसा ही फल पाता है। अच्छे को अच्छा तथा बुरे को, बुरा भोग मिल जाता है।। अन्वयार्थ-च = और । भो! = हे आत्मन् ! खलु = निश्चय ही मैंने । बहु = बहुत । पावं कम्म = पाप कर्म । पगडं = किये हैं।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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