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________________ प्रथम चूलिका ] हिन्दी पद्यानुवाद जिस दीक्षित मुनि के मोहजन्य - दुःख मानस में हो भर आया । संयम में उसके अरति खिन्न, मन ने अतिशय ही दुःख पाया ।। संयम छोड़ गृहस्थाश्रम, जाने का जिसको मन भाया । तज-संयम-वैराग्य राग पर, मन जिसका हो ललचाया ।। संयम तजने के पहले ही, इस पर देना है ध्यान उसे । इन अट्ठारह पद का सम्यक्, आलोचन कर्त्तव्य जिसे ।। जो है अस्थित आत्मा वाले, वे मन से सम्मान इसे। निश्चय आत्मा सुस्थिर होगी, जो सदा रखेगा याद इसे ।। इन अट्ठारह का उनके हित में, स्थान वही है इस जग में। जैसे लगाम का अश्व हेतु, होता महत्त्व यात्रा पथ में ।। ज्यों अंकुश का उपयोग सदा, होता गज के अनुशासन में । पोतों हेतु उपयोगी ज्यों, होता है ध्वज भवसागर में ।। [291 = तो । = अन्वयार्थ-भो = हे शिष्यों । पव्वइएणं = दीक्षा लेने के पश्चात् । उप्पण्ण ( उप्पन्न ) दुक्खेणं = किसी समय शारीरिक अथवा मानसिक दुःख/कष्ट अथवा व्याधि के उत्पन्न होने से यदि कदाचित् । ' संयमे = संयम - पालन में संयम मार्ग से। अरइ समावण्ण चित्तेणं = चित्त (मन) उचट जाय, संयम - पालन के प्रति अरति उत्पन्न हो जाय अथवा संयम-मार्ग में चित्त न लगे, संयम के प्रति चित्त में प्रेम न रहे और । ओह संयम यानी साधुपना छोड़कर पुनः गृहस्थाश्रम में जाने की इच्छा हो जाय, अणोहाइएणं चेव = संयम छोड़ने से पूर्व साधु को । इह खलु इमाई निश्चय ही इन । अट्ठारस ठाणाई = अठारह स्थानों को । सम्मं = सम्यक् प्रकार से ( खूब अच्छी तरह से) विचार करना चाहिये क्योंकि। हयरस्सि गयंकुसं पोय पडागा भूयाइं = जिस प्रकार लगाम लगाने से चंचल घोड़ा वश में आ जाता है, अंकुश लगाने से मदोन्मत्त हाथी रास्ते पर आ जाता है, मार्ग भूलकर समुद्र में भटकी हुई व इधर-उधर गोते खाती हुई नाव पतवार द्वारा ठीक मार्ग पर आ जाती है, उसी प्रकार । संपडिलेहिय- व्वाइं भवंति = आगे कहे जाने वाले अठारह स्थानों पर विचार करने से मुनि का चंचल एवं डांवाडोल बना हुआ चित्त भी पुनः संयम मार्ग में स्थिर हो जाता है। तं जहा = वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं भावार्थ-निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रव्रजित साधु को कभी मोहजन्य दुःख उत्पन्न हो जाय, संयम में चित्त अरतियुक्त एवं चंचल हो जाय, वह संयम को छोड़कर गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता हो तो उस समय संयम छोड़ने से पूर्व उसको इन अठारह स्थानों की भली-भाँति आलोचना करनी चाहिये । इनका ध्यान पूर्वक पारायण करना चाहिये । अस्थिर आत्मा के लिये इन स्थानों का वही महत्त्व है जो अश्व के लिये लगाम का, हाथी के लिये अंकुश का और पोत के लिये पताका का है। वे अठारह स्थान इस प्रकार हैं
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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