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________________ 286] [दशवैकालिक सूत्र समान अपने अंगोपांग को गुप्त रखता है। मनोगुप्ति के लिये शरीर और इन्द्रियों का गोपन आवश्यक है। जब तक इन्द्रियों की चंचलता दूर नहीं की जायेगी, मन की स्थिरता सम्भव नहीं होती । अत: यहाँ तन के संयम को प्राथमिकता दी गई है, क्योंकि इन्द्रिय विजय से मनोविजय अतिसरल हो जाता है । संयतेन्द्रिय अध्यात्म-भाव में रत और समाधि युक्त आत्मा वाला सूत्रार्थ को जो सम्यक् जान लेता है, वही भिक्षु है। उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अण्णाय उंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कय सन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए विरए जे स भिक्खू।।16।। हिन्दी पद्यानुवाद उपधि अमूर्च्छित अशन निस्पृहि, संयम दूषक दोष रहित । क्रय विक्रय सन्निधि का त्यागी, सब संग रहित वह भिक्षु कथित ।। ___ अन्वयार्थ-जे = जो । उवहिम्मि = उपकरणों में । अमुच्छिए = मूर्च्छित नहीं होता। अगिद्धे = गृद्धिपन (प्रतिबन्ध) नहीं रखता । अण्णाय उंछं = शरीर-यात्रा को चलाने के लिये अज्ञात कुल से थोड़ाथोड़ा उपकरण व आहार लेता है। पुलनिप्पुलाए = संयम को निस्सार नहीं करने वाला । कयविक्कय = क्रय-विक्रय (खरीद-बिक्री) से दूर । सन्निहिओ = घृत आदि को रात में नहीं रखने वाला । विरए = विरत । य = और । सव्वसंगावगए = सब प्रकार के संग से दूर रहता है । स = वह । भिक्खू = भिक्षु है। भावार्थ-मुनि संयम-साधना के लिये स्वीकृत उपकरणों से भी मोह नहीं करता, मन से बन्धन रहित होता है। भोजन भी अज्ञात कुल से, बिना उन्हें खबर दिये थोड़ा-थोड़ा लेता है, संयम मूल गुणादि को निस्सार नहीं करता, वस्त्र-पात्र-शास्त्र आदि की खरीद-बिक्री से दूर, अशनादि का रात में संचय नहीं करने वाला, हिंसादि पापों से विरत और धन-धान्य आदि सम्पूर्ण संग से दूर होता है, वही भिक्षु होता है। अलोलभिक्खू न रसेसु गिद्धे, उंछं चरे जीविए नाभिकंखे । इडिं च सक्कारण पूअणं च, चएइ ट्ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू।।17।। हिन्दी पद्यानुवाद अचपल रसों में लुब्ध नहीं, लघु भिक्षाचर जीवन त्यागी। आत्म स्थित निस्पृह भिक्षु वह, जो ऋद्धि, मान पूजा त्यागी।। अन्वयार्थ-जे = जो। भिक्खू = भिक्षु । अलोल = अप्राप्त रस की अभिलाषा रहित । न रसेसु गिद्धे (गिज्झे) = अगृद्ध, प्राप्त रसों में आसक्त नहीं । उंछं = थोड़ा-थोड़ा । चरे = लेने वाला । जीविए (जीविय) = असंयम जीवन की। नाभिकंखे = इच्छा नहीं करता। इढि = ऋद्धि । सक्कारण =
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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