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________________ 260] [दशवैकालिक सूत्र या जाति का गर्व करने वाला । पिसुणे = चुगल खोर । साहस हीणपेसणे = बिना सोचे काम करने वाला और यथा समय आज्ञा का पालन नहीं करने वाला । अदिट्ठधम्मे = धर्माचरण से हीन । विणए अकोविए = विनय में अकुशल । असंविभागी = स्वधर्मियों में आहार आदि का संविभाग नहीं करने वाला होता है। तस्स मुक्खो = उसको मोक्ष प्राप्त । ण हु = नहीं होता। भावार्थ-जो भी शिष्य अथवा नर स्वभाव का क्रोधी, कुल-जाति और ऋद्धि का गर्व करने वाला और चुगलखोर है, जो बिना विचारे काम करने वाला है और गुरुजनों की आज्ञा का पूर्ण पालन नहीं करने वाला है, धर्माचरण से हीन है तथा विनयहीन है, मूर्ख है एवं प्राप्त आहार आदि का धर्म बन्धुओं में संविभाग नहीं करता है, उसको मुक्ति-लाभ नहीं होता है। णिद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्थधम्मा विणयम्मि कोविया । तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया ।।24।। त्ति बेमि॥ हिन्दी पद्यानुवाद जो हैं गुरु के आज्ञाकारी, गीतार्थ विनय में बने कुशल। दुस्तर भवाब्धि तर कर्म काट, उत्तम गति को पाएँ मुनिवर ।। अन्वयार्थ-जे = जो । गुरूणं (गुरुणं) = गुरुजनों के । णिद्देसवित्ती = निर्देश का यथावत् पालन करने वाले हैं। पुण = और । सुअत्थधम्मा (सुयत्थधम्मा) = श्रुत और उसके अर्थ के जानकार हैं। विणयम्मि = विनय-धर्म के पालने में । कोविया = कुशल हैं। ते = वे । इणं = इस । दुरुत्तरं ओघं = दुःख से तैरने योग्य संसार-प्रवाह को । तरित्तु = तिर कर । कम्मं = कर्मों का । खवित्तु = क्षय करके । उत्तम = उत्तम सिद्ध । गई = गति को । गया = प्राप्त करते हैं । त्ति बेमि = ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-अविनय का परित्याग करके जो शिष्य गुरुजनों की आज्ञा का यथावत् पालन करते हैं, श्रुत-अर्थ के जानकार हैं तथा विनय-धर्म के पालन में कुशल हैं, वे शिष्य इस दुस्तर संसार-सागर को तिरकर, सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके उत्तम सिद्ध गति को प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा गणधर सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू को कहते हैं। ।। नौवाँ अध्ययन-द्वितीय उद्देशक समाप्त ।। UROBOROBERBRORURORROBOR
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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