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________________ 252] [दशवैकालिक सूत्र अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही। लोगंसि = संसार में । अविणीअप्पा = अविनीत स्वभाव के। नर-नारिओ = जो स्त्री-पुरुष होते हैं । ते = वे । छाया = भूखे, कृश तन । विगलिंदिया = और विकल इन्द्रिय बने । दुहमेहंता = दु:ख भोगते हुए । दीसंति = देखे जाते हैं। भावार्थ-संसार में जो स्त्री-पुरुष अविनीत स्वभाव वाले-अहंकारी होते हैं, वे शोभा रहित, भूखेप्यासे, शरीर से कृश और नाक, कान आदि इन्द्रियों से विकल, शारीरिक एवं मानसिक अनेक प्रकार के दुःख भोगते हुए देखे जाते हैं। अविनयशील स्वभाव के कारण उनके घर और परिवार में प्रसन्नता के स्थान पर प्रायः कलह एवं दु:ख का वातावरण रहता है। दण्ड-सत्थ-परिजुण्णा, असब्भवयणेहि य । कलुणा विवण्णछंदा, खुप्पिवासाइ परिगया।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद दण्ड शस्त्र से जर्जर तन, और पीडाकारी वचनों से। आती दया देखकर पीड़ित, भूख प्यास के कष्टों से ।। अन्वयार्थ-दण्ड-सत्थ = दण्ड और शस्त्र प्रहार से। परिजुण्णा = जर्जरित । य = और । असब्भवयणेहि = असभ्य वचनों से तिरस्कत। कलणा = दया पात्र । विवण्णछंदा = पराधीन । खुप्पिवासाइ (खुप्पिवास) = भूख और प्यास से । परिगया = पीड़ित देखे जाते हैं। भावार्थ-अविनीत की कैसी स्थिति होती है, इसका परिचय देते हुए कहा गया है कि अविनीत दण्ड और शस्त्र प्रहारों से जर्जरित और असभ्य वचनों से तिरस्कृत होते हैं, उनकी दशा करुणाजनक होती है। वे परतन्त्र दशा में भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी से घिरे हुए सदा कष्ट भोगते रहते हैं। तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नर-नारिओ। दीसंति सुहमेहंता, इढिं पत्ता महाजसा ।।७।। हिन्दी पद्यानुवाद वैसे विनीत नर-नारी भी, जग में वैभव बहु यश पाते। सुख प्राप्त दिखाई देते हैं, वैसे विनीत जग में छाते ।। अन्वयार्थ-तहेव = वैसे ही। लोगंसि = संसार में । नर-नारिओ = जो स्त्री-पुरुष । सुविणीअप्पा = विनयशील स्वभाव के हैं; वे । महाजसा = महान् यशस्वी । इढिं पत्ता = लोक-परलोक की ऋद्धि प्राप्त कर । सुहमेहंता = सुख भोगते हुए । दीसंति = देखे जाते हैं। भावार्थ-अविनीत जैसे नानाविध कष्टों का अनुभव करते हैं, इसके विपरीत संसार में जो विनयशील
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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