SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 250] [दशवैकालिक सूत्र जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटुं सोयगयं जहा ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद जो क्रोधी अज्ञ दी भीरु, दुर्वादी शठ कपटी होता। अविनीत हृदय वह दारु तुल्य, जल धारा में खाता गोता।। अन्वयार्थ-जे = जो । य (अ) = और । चंडे = चंड (क्रोधी) । मिए = मृगवत्-अज्ञानी । थद्धे = अहंकारी । दुव्वाई = दुर्वादी-कदाग्रही । नियडी (निअडी) = कपटी । सढे = शठ-संयम से अंग चुराने वाला है। से = वह । अविणीअप्पा = अविनीत आत्मा । सोयगयं (सोअगयं) = समुद्र के प्रवाह में। जहा = जैसे । कटुं = काष्ठ । वुज्झई = गोते खाता रहता है, वैसे वह संसारी रूपी समुद्र के प्रवाह में भटकता रहता है। भावार्थ-विनय धर्म से प्रतिकूल चलने का परिणाम बताते हैं-जो क्रोधी, मृगसम अज्ञानी, अहंकारी, अप्रिय भाषी, कपटी और धूर्त है, वह अविनीत आत्मा समुद्र के अथाह जल-प्रवाह में गिरे हुए काष्ठ की तरह चतुर्गतिक संसार में भटकता है, कहीं भी शान्ति से स्थिर नहीं रह सकता। विणयम्मि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पड़ नरो। दिव्वं सो सिरिमिज्जतिं, दंडेण पडिसेहए ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद सुनकर शिक्षा विनय धर्म की, कुपित हृदय जो हो जाता। वह आती हुई दिव्यलक्ष्मी को, डंडा मार भगा देता ।। अन्वयार्थ-जो = जो। नरो = मनुष्य । विणयम्मि = विनय-धर्म में दीक्षित होने के लिए। उवाएणं = मधुर वचन एवं उपदेश आदि उपायों से । चोइओ = प्रेरित किये जाने को अपना कटु दमन समझ कर । कुप्पइ (कुप्पई) = कुपित होता है । सो = वह । इज्जंतिं = आती हुई। दिव्वं सिरिं = दिव्य लक्ष्मी को । दंडेण = दंड से । पडिसेहए = बाहर निकालता है, अर्थात् आती लक्ष्मी को ठोकर मारता है। भावार्थ-जो मंदबुद्धि मनुष्य विनय के सम्बन्ध में उचित शिक्षा प्राप्त करने के लिये प्रेरित किये जाने पर भी क्रोध करता है, तो समझना चाहिये कि वह मूढ घर में आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे मारकर घर से बाहर कर रहा है। ऐसे मनुष्य को यश, कीर्ति, सम्पदा और सम्मान से सदा वंचित रहना पड़ता है। तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्ठिया ।।5।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy