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________________ [दशवैकालिक सूत्र 248] सुच्चाणमेहावि सुभासियाई, सुस्सूसए आयरियऽप्पमत्तो। आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं ।।17। त्ति बेमि ।। हिन्दी पद्यानुवाद मेधावी सुन ये सुघड़ वचन, हो अप्रमत्त गुरु का सेवन । करके अनेक गुण आराधन, पा लेता मोक्ष परम पावन ।। अन्वयार्थ-मेहावि = मेधावी मुनि । सुभासियाई = पूर्वकथित सुभाषित वचनों को । सुच्चाण (सोच्चाण) = सुनकर । अप्पमत्तो = अप्रमत्त भाव से प्रमाद रहित होकर । आयरिय = आचार्य की। सुस्सूसए = सेवा करे । से अणेगे = वह गुरु चरणों में ज्ञानादि अनेक । गुणे = गुणों की। आराहइत्ताण = आराधना करके । अणुत्तरं = सर्वश्रेष्ठ । सिद्धिं = सिद्धि पद को । पावई = प्राप्त करता है। भावार्थ-गुरु की अविनय आशातना से आत्म-गुणों की हानि और गुरु गुणगान का लाभ बताकर अब उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि बुद्धिमान् साधु उपर्युक्त सुभाषित वचनों को सुनकर आचार्य देव की अप्रमत्त भाव से सेवा करे । गुरु चरणों में बैठकर विविध गुणों की आराधना करने वाला मेधावी मुनि सर्वश्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। ऐसा मैं कहता हूँ। ।। नौवाँ अध्ययन-प्रथम उद्देशक समाप्त ।। ERERERERSRSRSRSRSRSRSR
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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