SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 246] [दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद लज्जा दया ब्रह्मव्रत संयम, कल्याण भाग के शुचितम पद। सतत सिखायें मुझको जो गुरु, नित्य करूँ पूजन वह पद ।। अन्वयार्थ-लज्जा = पाप कार्य के प्रति लज्जा व भय रखना । दया = जीव दया-अनुकम्पा के भाव । संजम = संयम और । बंभचेरं = ब्रह्मचर्य, ये चार गुण । कल्लाण भागिस्स = कल्याणार्थी साधक के लिये । विसोहिट्ठाणं = विशुद्धि के स्थान हैं। इसलिये शिष्य को सोचना चाहिये कि । जे = जो । गुरु = गुरुदेव । सययं = निरन्तर । मे = मुझे । अणुसासयंति = शिक्षा देते हैं । ते = उन । गुरु सययं = गुरुओं की सदा । अहं = मैं । पूययामि (पूअयामि) = विनय-भक्ति करूँ। ___ भावार्थ-साधक की साधना में चार शुद्धि के स्थान हैं, जैसे-लज्जा-पाप करते समय शरमाना, दया, करुणा-भाव, संयम और ब्रह्मचर्य । उपकारी के प्रति बहुमान की भावना से शिष्य सोचता है कि जो गुरु सदा मुझे हित की शिक्षा देते हैं, उनकी मुझे सतत-सेवा भक्ति करनी चाहिए। क्योंकि संसार में गुरु से बढ़कर कोई भव-भव का उपकारी नहीं होता । नीति शास्त्र में भी कहा है कि एक अक्षर सिखाने वाला भी उपकारी होता है। उसका भी बहुमान करना चाहिये। फिर जो सदा जीवन सुधार की शिक्षा देते हैं उनके उपकार का तो कहना ही क्या ? उनके उपकार की कोई सीमा नहीं है। उनका सदा बहुमान एवं सेवा भक्ति करनी चाहिये। जहा णिसंते तवणच्चिमाली, पभासइ केवलं भारहं तु । एवायरियो सुयसीलबुद्धिए, विरायइ सुरमज्झेव इंदो ।।14।। हिन्दी पद्यानुवाद रात्रि गए ज्यों किरण माल रवि, भरत क्षेत्र द्योतित करता। त्यों श्रुतशील बुद्धि से गुरु, मुनि मध्य सुरेन्द्र बना रहता।। अन्वयार्थ-जहा = जिस प्रकार । णिसंते = रात्रि के अवसान में यानी प्रात:काल होने पर। तवणच्चिमाली = तेज से देदीप्यमान सूर्य । केवलं (केवल) = पूरे । भारहं तु = भारत वर्ष को । पभासइ = प्रकाशित करता है। एवायरियो (एवमायरियो) = इसी प्रकार आचार्य महाराज । सुयसीलबुद्धिए = श्रुत-ज्ञान, चारित्र और बुद्धि से । सुरमज्झे = देवों में । इंदो व = इन्द्र के समान । विरायइ = शोभित होते हैं । वे स्व-पर के हृदयों को ज्ञान व दर्शन के प्रकाश से आलोकित करते हैं। भावार्थ-गुरु अज्ञान को मिटाने वाले होते हैं। उनके लिये कहा गया है कि जैसे प्रात:काल अपनी किरणों से दैदीप्यमान सूर्य सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हुए शोभित होता है, वैसे ही धर्माचार्य अपने श्रुत, निर्मलशील और अपनी विमल बुद्धि द्वारा जन-जन के हृदय को प्रकाशित करते हुए शोभित होते हैं। फिर गुरु के लिए और उपमा देते हुए कहा गया है कि वे शिष्य गण के बीच ऐसे शोभित होते हैं जैसे सुरगणों के बीच इन्द्र शोभित होता है। इसलिये जन श्रुति प्रसिद्ध है कि “गुरु दीपक गुरु चाँदणा, गुरु बिन घोर अंधेर।"
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy