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________________ नौवाँ अध्ययन] [243 हिन्दी पद्यानुवाद चाहे न जलाये पावक भी, या होकर क्रुद्ध न अहि खाए। अथवा न हलाहल विष मारे, पर मोक्ष न गुरु निन्दक पाए ।। अन्वयार्थ-सिया हु = कदाचित् । से = पैरों से अग्नि कुचलने वाले को । पावय = अग्नि । णो डहिज्जा = नहीं जलावे । वा = अथवा । आसीविसो = दृष्टि विष सर्प । कुविओ न भक्खे = कुपित होकर भी कुपित करने वाले का भक्षण नहीं करे। सिया = कदाचित् । विसं हलाहलं = हलाहल विष भी। न मारे = खाने वाले को नहीं मारे, यह हो सकता है किन्तु । गुरुहीलणाए = गुरु की हीलना करने वाले का। यावि = कभी भी। न मुक्खो = मोक्ष नहीं हो सकता। भावार्थ-गुरु की आशातना की अग्नि आदि से तुलना की जाती है। हो सकता है कि कभी जड़ीबूटी एवं मन्त्रादि के प्रयोग से अग्नि किसी को न भी जलावे । मन्त्र-बल से कुपित सर्प भी भक्षण नहीं करे और खाया हुआ हलाहल विष भी नहीं मारे । किन्तु गुरु की हीलना करने वाले को मोक्ष कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता । आशातना वह महाविष है जो भव-भव में दुःख देने वाला है। जो पव्वयं सिरसा भेत्तुमिच्छे, सुत्तं च सीहं पडिबोहइज्जा। जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमासायणया गुरूणं ।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद जो सिर से गिरि भेदन चाहे, अथवा दे सिंह जगा सोए। या भाले की अणि चोट करे, यह उपमा गुरु अपमान किए।। अन्वयार्थ-जो = जो। सिरसा = सिर की टक्कर से। पव्वयं = पर्वत को। भेत्तमिच्छे (भित्तुमिच्छे) = तोड़ना चाहे । च = और । सुत्तं सीहं = सोये हुए सिंह को । पडिबोहइज्जा = जगावे । वा = अथवा । जो = जो । सत्ति अग्गे पहारं दए = भाले की तीखी नोंक पर प्रहार करे । गुरूणं = गुरुजनों की। आसायणया = आशातना । एसोवमा = इसके समान कही गई है। भावार्थ-गुरुजनों की आशातना करना कितना भय जनक है, इसको समझाने के लिये अग्निआशीविष और विष की उपमाएँ दी गईं। अब पर्वत भेदन की, सोये सिंह को जगाने की और भाले के अग्रभाग पर प्रहार करने की तीन उपमाएँ फिर बताई गई हैं। जैसे सिर से पर्वत को टक्कर मारना, सोये सिंह को जगाना और भाले के अग्रभाग पर हाथ का प्रहार करना सुखकर नहीं होता, वैसे ही गुरुजनों की आशातना करने से कोई लाभ नहीं होता । बल्कि ज्ञानादि गुणों की निश्चित हानि होती है। सिया हु सीसेण गिरिं पि भिंदे, सिया हु सीहो कुविओ न भक्खे। सिया न भिंदिज्ज व सत्तिअग्गं, न या वि मुक्खो गुरुहीलणाए।।७।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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