SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नौवाँ अध्ययन] [241 अन्वयार्थ-एगे = कई एक वयोवृद्ध होकर । वि = भी। पगईए (पगईइ) = स्वभाव से । मंदा = मंदबुद्धि वाले। भवंति = होते हैं । डहरा वि य जे = कुछ लघुवय वाले भी जो। सुयबुद्धोववेया = शास्त्रज्ञ और बुद्धि सम्पन्न होते हैं। आयारमंता = पर वे आचारवान् । गुणसुट्ठिअप्पा = संयम गुणों में अच्छी तरह स्थित आत्मा वाले होते हैं, उनका किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिये । जे हीलिया = वे गुरु शिष्य के द्वारा तिरस्कृत होने पर । सिहिरिव = अग्नि की तरह । भासकुज्जा = शिष्य के ज्ञानादि गुणों को भस्म कर देते हैं। __ भावार्थ-सब व्यक्तियों के कर्मों का क्षयोपशम एकसा नहीं होता-कई एक गुरु वयोवृद्ध होकर भी स्वभाव से मंदबुद्धि वाले होते हैं-उनकी बुद्धि का विस्तार नहीं हो पाता, दूसरे अल्प वयस्क होकर भी अच्छे और तेज बुद्धि वाले होते हैं । पर मंदबुद्धि होते हुए भी वे आचारवान् संयमादि गुणों में स्थिर आत्मा वाले होते हैं। उनका किसी का भी अनादर नहीं करना चाहिये । वे गुरु अनादर पाकर अग्नि के समान हीलना करने वाले शिष्य के ज्ञानादि गुणों को भस्म कर देते हैं । गुरु की हीलना करने से शिष्य की श्रद्धा और उसके संयम में कमी आकर अशुभ कर्म के कारण उसके ज्ञान गुण में भी क्षीणता आ जाती है। जे यावि नागं डहरं त्ति णच्चा, आसायए से अहियाय होइ। एवायरियं पि हु हीलयंतो, णियच्छइ जाइपहं खु मंदो ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद जो जान नाग का शिशु है यह, करता अपमान अहित होता। ऐसे गुरु के अपमान किये, नर मन्द विविध दुःख को पाता।। अन्वयार्थ-जे यावि = जो भी कोई अज्ञ । नागं = विषधर नाग को । डहरं त्ति = छोटा है बच्चा है ऐसा । णच्चा = जानकर । आसायए = कंकर मार कर उसे पीड़ा देता है । से = उसके लिये वह छोटा सर्प भी। अहियाय = अहित का कारण । होइ = होता है। एवं = इसी प्रकार । आयरियं पिहु = ऐसे आचार्य की भी। मंदो (मंदे) = जो मंदमति । हीलयंतो = हीलना करता है। खु = निश्चय ही वह । जाइपहं = एकेन्द्रिय आदि विविध जातियों में । णियच्छड = जन्म-मरण प्राप्त करता है। भावार्थ-दृष्टान्त द्वारा विषय को सरल करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-जो भी अनजान किसी सर्प को छोटा अथवा बच्चा जानकर लकड़ी आदि से सताता है, उसके लिये वह सर्प अहित का कारण होता है। इसी प्रकार कोई मंदमति आचार्य का भी अनादर करता है तो निश्चय ही वह शिष्य विविध योनियों में जन्ममरण प्राप्त करता है। वह आत्म-हित की प्राप्ति नहीं कर सकता। आसीविसो वा वि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा। आयरियपाया पुण अप्पसण्णा, अबोहि-आसायण णत्थि मुक्खो।।5।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy