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________________ [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ- जिस प्रकार प्राणी अपने ही कर्म द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं मलिन करता है, वैसे ही जैन शास्त्रानुसार आत्मा को निर्मल भी साधक स्वयं करता है। उसकी अनुभवपूर्ण युक्ति यह है कि जैसे अग्नि में तपाने पर चाँदी और सोने का मल नष्ट होकर चाँदी-सोने का शुद्ध रूप प्रकट हो जाता है, वैसे ही स्वाध्यायध्यान व तप की आग में तप कर विशुद्ध भाव युक्त दयालु साधु के समस्त कर्म नष्ट होकर उसकी आत्मा शुद्ध-निर्मल रूप में प्रकट हो जाती है। 238] से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे । विरायई कम्मघणम्मि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमे ।।64।। ।।त्ति बेमि ।। हिन्दी पद्यानुवाद ऐसा वह दान्त कष्ट भोगी, श्रुतयुत निर्मम सब द्रव्य रहित । होने पर क्षीण कर्मघन के, शशि सम शोभित हो मेघरहित ।। अन्वयार्थ - = वह । तारिसे = पूर्वोक्त गुणवाला । दुक्खसहे = सुख-दुःख रूप परीषहों को समभाव से सहने वाला । जिइंदिए = जितेन्द्रिय । सुएण जुत्ते = श्रुत ज्ञान से युक्त होकर । अममे = ममता रहित। अकिंचणे = अपरिग्रही साधक । कम्मघणम्मि अवगए = अष्टविध कर्मघन से दूर होने पर वैसे ही । विरायई = शोभित होता है । व कसिणब्भपुडावगमे = जैसे सम्पूर्ण अभ्रपटल के अलग हो जाने पर । चंदिमे = चन्द्र शोभित होता है । त्ति बेमि = ऐसा मैं कहता हूँ । भावार्थ-कर्ममुक्त आत्मा की शुद्ध स्थिति कैसी होती है, इसको समझाते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि-जिस प्रकार अभ्र पटल के सर्वथा दूर होने पर गगन मण्डल में चन्द्र शोभित होता है, वैसे ही सुख-दुःख में सम रहने वाला जितेन्द्रिय, श्रुतयुक्त, ममता रहित और अपरिग्रही साधक सम्पूर्ण कर्मघन के दूर होने पर स्वस्वरूप में केवल ज्ञान के प्रकाश से शोभित होता है। ऐसा मैं कहता हूँ । ।। आठवाँ अध्ययन समाप्त ।। SAURSABRUKERSKERER
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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